क्या क्या कामन

हमारी दिल्ली में आखिरकार कामनवेल्थ गेम्स का आगाज़ हो गया . बेहद मीन मेख, नुक्ता चीनीं , तल्खियों के बाद खुशनुमा रंगीनियों के साथ गेम्स की धमाकेदार शुरुआत हुई. बहुत शोर शराबा था आशंकाओं का मगर गेम्स की शुरुआत के साथ सब कुछ ठीक ठाक हो गया . शको शुबा के बीच अनहोनी होने की ज़ोरदार चर्चा बनी हुई थी मगर जब गेम्स शुरू हुए तो तमाम अफवाहें , तमाम निराशाएं काफूर हो गयीं . बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल के , जो चीरा तो कतरा ए खून निकला. जब गेम्स शरू हुए तो रत्ती भर भी नाकामी दिखाई नहीं दी . गेम्स के रास्ते में स्पीड ब्रेकर लगाने के लिए न जाने कितनी नामी गिरामी हस्तियों ने अपने दांव पेंच लगाये मगर वही हुआ जो होना था . गेम्स शुरू होते ही सब हस्तियों की खुदगर्जी भरे अहमियत हासिल करने के खेलों का अंत हो गया . हुआ वही जो ऊपर वाले को मंज़ूर था . यानी वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है --यह साबित हो गया .

कुछ भी हो दिल्ली की किस्मत में खेलों की मेजबानी आने से दिल्ली की तकदीर ही बदल गयी . दिल्ली तो नई दिल्ली से नई नकोर दिल्ली बन गयी . सज गई , संवर गई , निखर गई दिल्ली सचमुच हरेक के दिलो दिमाग मैं उतर गई . हरेक खिलाड़ी और टूरिस्ट के दिल मे बस गई . दिल्ली में इतना ज्यादा निर्माण का काम हुआ कि यह शहर दुनिया के बेहतरीन शहरों की कतार में बहुत आगे पहुँच गया. यहाँ की लाजवाब हरियाली, सुन्दरता और खुशहाली की कहानी कहती है . दिल्ली में बने फ्लाई ओवर , स्टेडियम ,सड़कें,मेट्रो , नया हवाई अड्डा ,अंडर पास , फुट ओवर ब्रिज , नई नई बसें --ये सब तो दिल्ली की कामन वेल्थ यानि साझा दौलत बन गई है. कामन वेल्थ ने इन तमाम सुविधाओं को हरेक आम और ख़ास के लिए कामन बना दिया है . कहते हैं कि अगर दिल्ली को कामनवेल्थ गेम्स नहीं मिले होते तो दिल्ली को इतनी तरक्की का मौक़ा नहीं मिलता और न ही हमें 'कामन ' महसूस करने का अहसास होता . दिल्ली का तमाम बुनयादी ढांचा कामन हो गया है, सभी को दिल्ली के अपनेपन का अहसास हुआ है, सभी दिल्ली को और कामन वेल्थ गेम्स को अपनी आन, बान, शान , पहचान के साथ जुड़ा हुआ मान रहे हैं.


ये तो सच है कि दिल्ली में अब सब कुछ कामन दिखाई देता है मगर इस महानगर में एक करोड़ सत्तर लाख लोगों की भीड़ में सब कुछ कामन होने के बावजूद किसी के भी सुख दुःख कामन नहीं हैं. हरेक आदमी अपनी ख़ुशी में और अपनी गमी में खुद ही ऐसे पल गुजारने को मजबूर होता है . ये बात अलग है कि कुछ लोग रस्मी तौर पर चंद मिनट के लिए ' दो शब्द ' बोल कर अपनी 'सिम्पथी ' या बाहरी ख़ुशी का अहसास कराते हैं लेकिन उसके बाद प्रभावित आदमी को हालत से जूझने और खुद को ' नार्मल' बनाने के लिए ' तन्हा ' छोड़ देते हैं. ऐसा बर्ताव फॅमिली से बाहर के लोग ही नहीं करते बल्कि अपने भाई बहन और अपनी औलाद भी करती है.

इस महानगर में अब यह सचमुच सही लगता है --जिस तन लागे सो तन जाने, बाकी सब तो बने बेगाने . इन अजनबियों कि भीड़ में भी आदमी कुछ अपनों की तलाश करता है मगर वह अपनी कोशिश में बुरी तरह टूट जाता है . तब उसके लिए दिवाली की जगमग भी अंधकार लगती है और ईद की ख़ुशी में भी वीरानी दिखाई देती है . दिल्ली महानगर अनूठा है . यहाँ कोई किसी को अपना नहीं मान सकता . ऐसे माहौल में सुख दुःख कैसे कामन हो सकते हैं. अब न कोई 'रीयल' दोस्ती दिखाई देती है और न ही कोई 'रीयल' रिश्तेदारी. अब रिश्तों की बुनियाद भावनाएं नहीं दौलत बनती जा रही है. भले ही 'कामनवेल्थ' का जोश कामन बन गया हो मगर दिल्ली में सुख दुःख 'कामं' होने का सपना अब शायद ही कभी पूरा हो सके.

1 टिप्पणियाँ:

जिस तन लागे सो तन जाने, बाकी सब तो बने बेगाने . इन अजनबियों कि भीड़ में भी आदमी कुछ अपनों की तलाश करता है मगर वह अपनी कोशिश में बुरी तरह टूट जाता है . तब उसके लिए दिवाली की जगमग भी अंधकार लगती है और ईद की ख़ुशी में भी वीरानी दिखाई देती है . दिल्ली महानगर अनूठा है . यहाँ कोई किसी को अपना नहीं मान सकता . ऐसे माहौल में सुख दुःख कैसे कामन हो सकते हैं."
भाई सुख दुःख में भी तो काँमन होना चाहिए ... बहुत बढ़िया भावपूर्ण प्रस्तुति......

 

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