फर्जीवाड़ा

हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तान क्या होगा. हर कदम पर फर्जीवाड़ा है , अब अपना मुस्तकबल क्या होया. बेईमानी , हेराफेरी, घोटाले की आखिर कोई हद तो होनी चाहिए . यहाँ दिल्ली में तो लोग बेहद सिर्जोर होकर हदें पार कर रहे हैं . न कोई खौफ है न कोई शर्म लिहाज़ , कहाँ जा पहुंचेगा अपना ये समाज. दर्द अगर एक हो तो दवा याद करू

, यहाँ तो दर्द का बेइंतहा समंदर है. कोई आवाज़ सुने यकीन नहीं होता, सुनाने वाला तो महफूज़ बैठा अन्दर है. हरेक रोज़ नयी बात निकल के आती है. नयी करतूत से इंसानियत शर्माती है . न जाने कब ये सिलसिला थम जायेगा या फिर इंतजार में दम निकल जायेगा.

कहते हैं दिल्ली की सब से बड़ी लोकल बाड़ी में लगभग २३ हज़ार ऐसे मुलाजिम हर महीने तनख्वाह ले जाते हैं जिन्हें न कभी किसी ने देखा न महसूस किया. जी हाँ जो रजिस्टर में तो हैं मगर वजूद में नहीं हैं जो काम तो कर रहे हैं , मगर कहाँ यह मालूम नहीं. उनके काम की कोई अफसर ताईद भी करता है, तस्दीक भी करता है. कोई नहीं जानता कि ऐसा सब कुछ किस बिनां पर किया जाता है. कौन बनता है ऐसे मुलाजिमों की हाजिरी का गवाह , कहाँ कहाँ बंटती है इनकी भारी भरकम तनख्वाह . ये मुलाजिम किसी न किसी जगह काम तो करते हैं या फिर फर्जी नाम से काम कर रहे मुलाजिमों की तनख्वाह सफ़ेद पोश अफसर और इज्ज़तदार बिचौलिए बंदरबांट कर खा जाते हैं. ये भी मालूम नहीं कि ऐसे फर्जी मुलाजिम किस किस बड़े अफसर या किस किस असरदार लीडर या फिर पहुन्च्दार बिचौलियों के घर क्या क्या , कैसा कैसा काम करते हैं या फिर तरह तरह के गैर कानूनी कामों मैं शरीक होते हैं.

बहरहाल इस लोकल बाड़ी को इससे हर साल २०४ करोड़ रुपये का चूना लग रहा है. न जाने कितने साल से ऐसा गोरखधंधा जारी है . कहते हैं , ऐसे फर्जी मुलाजिम ज़यादातर सफाई करनेवाले और बागन में काम करने वाले हैं . सचमुच ये बड़ी सफाई से हमारे खजाने की सफाई कर रहे हैं और अपने आकाओं के घर गुलज़ार कर रहे हैं. भला हो उस बियोमत्रिक सिस्टम का जिससे यह हेराफेरी सामने आई वर्ना ये मुस्तैदी से की जा रही लूट खसूट चलती रहती. इतना ही नहीं जिस तरह मुलाजिम काम करते हैं तो यह महसूस होता है , एक एक मुलाजिम की ज़रुरत पर पांच पांच मुलाजिम लगाये गए हैं . अगर कुल काम और ज़रूरी मुलाजिम की तादाद की स्टडी कराइ जाये तो कम से कम एक तिहाई तो सरप्लस हो जायेंगे . अगर ऐसा हो जाये तो हमें मौजूदा टैक्स के मुकाबले महज़ एक चौथाई टैक्स देना होगा. मगर यह लोकल बाड़ी बहुत बड़ी है, उसे हर रोज़ जूझना होता और ऐसी छोटी मोटी हेरा फेरी पर गौर करने का शायद उसके पास वक्त नहीं है.

आधी से भी आध

एक घडी , आधी घडी, आधी से भी आध . जी हाँ , अब आधी घडी या फिर उससे भी आधे पल के महत्व का असर दिखाई दे रहा है. कम्पीटीशन
यानि स्पर्धा के इस दौर में महसूस किया जा रहा है कि अपने व्यापार का दायरा बढाने के लिए वक्त को किस तरह आधार बनाया जा सकता है . बाज़ार पर कब्ज़ा करने के लिए इन दिनों फोन कम्पनियों के बीच अनूठी जंग जारी है . इस जंग में निजी और सरकारी कम्पनिया
शामिल हैं . बहरहाल , फायदा तो ग्राहक को यानि आम आदमी को हो रहा है . एक कंपनी ने एक मिनट की दर पर एस टी डी और लोकल फोन सेवा देने की घोषणा की तो दूसरी कंपनी ने लगभग उतनी ही राशि में प्रति सेकण्ड की दर पर सेवा देने का एलान कर दिया , तीसरी कंपनी ने आधे सेकण्ड की दर पर सेवा की पेशकश कर दी. कुल मिला कर दरों में कोई ज्यादा फर्क नहीं रहा मगर ग्राहकों को एक फायदा तो हुआ कि कभी तीन मिनट की काल पर एक सेकण्ड ज्यादा होने पर छः मिनट का भुगतान करना होता था या फिर एक मिनट की पल्स होने की स्थिति में दो सेकण्ड ज्यादा होने पर दो मिनट की रकम देनी पड़ती थी अब सेकण्ड
या आधा सेकण्ड की दर होने पर उन्हें वास्तविक समय के अनुसार शुल्क देना होगा . कहते है , स्पर्धा में उपभोक्ता को फायदा होता है और यह हो रहा है. ये गला काट स्पर्धा कहाँ तक जाएगी , इसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता. बहरहाल, आम आदमी प्रसन्न है . समय पर आधारित शुल्क या फिर वास्तविक मात्र के उपभोग पर आधारित बिल की व्यवस्था अन्य क्षेत्रों में भी संभव है . कुछ वर्ष पहले दिल्ली के कनाट प्लेस में एक रेस्तरां में लंच डिनर करने के लिए प्लेट के हिसाब से सब्जी की बिक्री के बजाय ज़रुरत के हिसाब से ग्राम की दर पर सब्जी दिए जाने की शुरुआत की गयी . इससे लोगों को फायदा हुआ . लोगों ने २०० रुपये की एक प्लेट लेने के बजाय २५-२५ ग्राम वज़न में तीन सब्जियों का स्वाद लिया और सस्ते में भोजन भी . पार्लर में पैकज के दाम के बजाय अगर मिनट और सेकण्ड की दर पर चार्ज किया जाए तो बहुत कम खर्च में सेवा मिल सकेगी .
इस तरह का आधार होटलों में भी अपनाया जा सकता है . ज़रुरत केवल इतनी है कि एक शुरुआत तो की जाए . शुरुआत होने पर लोग भी इस व्यवस्था को पसंद करेंगे . वैसे तो बिजली विभाग भी पीक समय औए गैर पीक समय , रात , आधी रात, तडके और तपती दोपहरी के समय के अनुसार प्रति यूनिट चार्ज करने पर विचार करता रहा है . बहरहाल , वक्त की नजाकत और चाल को समझाना ज़रूरी है . एक घडी, आधी घडी , आधी से आध . वक्त बड़ा बलवान है , इसको रखना याद .

सिंह दो , बातें हज़ार

राजनीती की दृष्टि से सबसे महतवपूर्ण राज्य है उत्तर प्रदेश . यहाँ की राजनीती की ज़मीन पर फिसलन है, अपने संगी साथी बदलने और कई बार अवसरवाद के बीज बो कर अपने फायदे की फसल काटने की रिवायत भी है . यहाँ के कई कद्दावर नेता बड़े से बड़ा या अन्य कोई महत्वपूर्ण पद हासिल करने के लिए यकायक कलाबाज़ी खाने , अपने विचार बदलने और दोस्त को दुश्मन बनाने तथा दुश्मन को गले लगाने में संकोच नहीं करते . इतना ही नहीं , व्यक्तिवाद पर आधारित पार्टियाँ चलाने वाले नेता चुनाव, पार्टी बदल बदल कर लड़ने में अपनी शान मानते हैं, भले ही चुनाव दो तीन माह बाद हो रहे हों. कुछ एक नेताओं का मकसद हर सरकार में मंत्री पद हासिल करने की कोशिश जारी रखना है. उत्तर प्रदेश राजनितिक चतुराई और राजनितिक चालबाजी की गहराई के मामले में उत्तम प्रदेश कहा जा सकता है. यहाँ के राजनितिक दल बिना मांगे केंद्र में सत्तारूढ़ गठबन्धनों को समर्थन देते हैं, सरकार बनवाते है, शक्ति परीक्षण में सरकार बचाते हैं, कई बार प्रदेश में एक पार्टी से तलाक लेने के बावजूद केंद्र में उसी पार्टी को समर्थन देते रहते हैं. समर्थन वापस लेने की धमकी देते हैं मगर ऐसा नहीं करते और कई बार समर्थन देकर सरकार बचाने के अपने योगदान को राजनीती की सबसे बड़ी भूल बताते हैं. इतना सब कुछ करते हुए उन्हें न तो कभी कोई शर्म आती है, न कभी कोई परेशानी होती है क्योंकि यही उनकी सिधान्त्वादी राजनीती है.

इसी पृष्ठभूमि में इन दिनों इस राज्य के दो सिंह यानी दो पूर्व मुख्यमंत्री या यूँ कहिये अपने आप को शेर मानने और बिना किसी कारण के दहाड़ने वाले दो नेता अपने विचारों और कर्मों को खुलेआम जनता में धो रहे हैं. ये दोनों नेता अपने को दुसरे से बढ़ कर धुरंधर बताते हुए तरह तरह की हज़ार बातें कर रहे हैं. जो खुद को सबसे कठोर , दमदार, वज़नदार बताते थे वही नेता कह रहे हैं कि साम्प्रदायिकता के दामन को आग लगाकर उनके साथ आये नेता से उनकी दोस्ती थी ही नहीं जबकि दुसरे सिंह को इस वक्त फिर भगवान श्री राम और सांस्कृतिक समरसता के आधार पर काम कर रहे अपने मूल संगठन की याद आयी है.

भगवान श्रीराम की शरण में रहने का दावा करने वाले नेता भूल गए कि उनके सिर पर जब लाल टोपी पहनाई गई थी तो उनकी बांछें खिल उठी थीं और जब उनके सोशलिस्ट दोस्त ने उन्हें लोकसभा की सीट उपहार में दी थी उस समय उन्हें भगवान श्री राम के नाम दी गयी कुर्बानी याद नहीं आई थी . अब वह अपने पुत्र के साथ घर वापसी की कोशिश में हैं. एक सिंह जो कह रहा है दूसरा सिंह उसे गलत बता रहा है . कभी कहा जाता था कि दोस्ती नहीं टूटेगी मगर अब दोस्ती के खडहर भी खाक में मिलाये जा रहे हैं .

पोलिटिशियन एस होर्स tradars-------इंग्लिश में

EDITS | Monday, November 16, 2009 | Print | Close


Politicians as horse traders

Sat Pal

Despite the enforcement of the Anti-Defection Law, there has been no let-up in the cases of defection in our polity. The menace of defection was conceived in the then newly carved-out State of Haryana in 1967 whose image was maligned due to coining of the phrase “Aaya Ram-Gaya Ram” after a certain MLA changed loyalties many times in a single day. This happened not due to any ideological differences but horse-trading.

This continued for years together, resulting in the downfall of a number of State Governments and the emergence of Chief Ministers who have had tenures of a week, days and even single days. Thank god there has been no record of any Chief Minister holding charge for few hours. It was an era of instability, uncertainty and chaos. There was even an instance when the Supreme Court intervened to order a trial of strength which paved the way for the exit of a day-old Chief Minister. There used to be numerous undesirable theatrics by certain so-called democratic elements on the eve of trial of strength in State Assemblies. Defections became a daily menace, fracturing our democratic institutions and moral values.

We still remember ‘Bharat Yatras’ being organised by dissident leaders to prevent their flock of MLAs from being lured away by money power. We have not forgotten when Chief Ministers along with all their ministerial colleagues and MLAs turned coats overnight to take side with the ruling alliances at the Centre. This has happened in Sikkim, Haryana and Arunachal Pradesh. Even Governments at the Centre have become victims of defection twice. Defections are still in the news. The motives are similar, although these are no more a reason for instability.

Anyhow, a few political parties are scared that unabated defections may make them extinct. It is a coincidence that a political party in Malyasia is also afraid of defections by their elected representatives due to lucrative offers by the ruling party. The Opposition Pan-Malaysian Islamic Party has told its elected representatives that they will have to divorce their life partners in case they defect. This has provided it with an adhesive that is keeping its flock intact.

But we are afraid if this sort of condition is enforced in our country many elected representative would happily switch political loyalties as that would help them get rid of their spouses! Which only shows the rot that has set in.


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भाषावादियों का हुडदंग

हमारा देश स्वतंत्र है , यहाँ हर तरह की आज़ादी है . यहाँ कोई भी कुछ भी कर सकता है जसे शोशेबाजी
,नाटकबाजी , बिना मकसद के निशानेबाजी और राजनितिक तीरंदाजी तभी तो आज भाषावादी सचमुच तमाशावादी बन गए हैं. भाषाई कट्टरवाद को आधार बनाकर आगे बढ़ने का सपना देखने वाले भाषा को तमाशा बनाजकर न जाने क्या हासिल करना चाहते हैं . भाषा संपर्क का माध्यम होती है, भाषा एक दुसरे से बात करने में मददगार होती है न के संपर्क काटने की तलवार होती है . भाषा एक समृध भंडार होती है, भाषा दुसरे मायने में आशा होती है जो निराशा के अंधकार को चीर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाने का काम करती है . भाषा जी हाँ भाषा को न ज़बरन फैलाया जा सकता है न इसका प्रचार किया जा सकता है और न ही प्रसार . भाषा कोई भी भाषा जब किसी व्यक्ति के मुखारबिंद से बोली जाती है तो उसका असर फूलों जैसा होता है , भाषा अगर क्रूर हो जाये तो उसे गाली और बदहाली का सूचक कहा जाता है. या यूँ कहिये के भाषा किसी भी व्यक्ति के मुख का आभूषण बनती है मगर यह काम ज़बरन, भय या दबाव से नहीं कराया जा सकता . भाषा को तमाशा बनाना उचित नहीं है क्योंकि भाषा की परिभाषा में बाँटना, काटना शामिल नहीं किया जा सकता .

आज एक प्रदेश में सभी निर्वाचित विधायकों से एक विशेष भाषा में शपथ लेने पर जोर दिया जा रहा है . इसलिए विधानसभा में सदस्यों के शपथ ग्रहण समारोह में एक नई पार्टी के विधायकों ने हंगामा किया , उनकी पसंद से अलग भाषा में शपथ लेने पर हुडदंग मचाया और अपनी जिद्द पर अडे रहे . सचमुच यह एक ऐसी जिद्द है जिसका कोई ओचित्य नहीं बनता . आप अपनी भाषा के प्रचार प्रसार के नाम पर दूसरी भाषाओँ को मौन नहीं कर सकते . संविधान में अंग्रेजी और हिंदी के आलावा भारत की कई भाषाओँ को एक अनुसूची में शामिल किया गया है अर्थात ये सभी भाषाएँ सरकार के काम काज और सदन की कार्यवाई के लिए मान्य हैं. आप अपनी भाषा के प्रति प्रेम प्रर्दशित करते हुए अन्य भाषाओँ के प्रतिनिधियों को मूक रूप से बिना बोले शपथ नहीं दिलवा सकते . जितनी आप की भाषा समृद्ध है उतनी ही अन्य भाषाएँ भी हैं . इस तरह का तकरार , व्यव्हार उस भाषाई कट्टरवाद की याद दिलाता है जब ६० के दशक में कथित हिंदी प्रेमी अंग्रेजी के साईन बोर्ड पर कालिख पोत दिया करते थे और एक बार तो अंग्रेजी बोलने वाले का मुंह भी काला कर दिया गया था . ऐसी गतिविधियों से न तो अंग्रेजी के इस्तेमाल में कमी आयी और न ही हिंदी को कोई फायदा हुआ. दरअसल एक भाषा के साथ मिलन से ही तो लोग एक से ज्यादा भाषाओँ का ज्ञान हासिल करते हैं . अगर आप अपनी भाषा के दायरे में ही सिमट कर रह जायेंगे तो ज्ञान के संसार और ज्ञान के भंडार से कट जायेंगे क्योंकि केवल अनुवाद के सहारे मौलिकता का आभास कर ज्ञान का विस्तार संभव नहीं होता.

भाषा प्रेम का प्रसार करे न के नफ़रत का तभी उसकी लोकप्रियता बढ़ सकती है . एक फ़िल्मी गीत के बोल हैं ---मेरे घर आना ज़िन्दगी, मेरे घर के आगे मोहब्बत लिखा है , . अगर आप की भाषा के घर के आगे मोहब्बत की जगह नफरत का साइन बोर्ड होगा तो वहां ज़िन्दगी नहीं आएगी अपितु निराशा, हताशा और मुर्दानगी का बोलबाला होगा .

घाट घाट पर नेताजी

देश की राजधानी दिल्ली --यहाँ पिछले दिनों घाट घाट पर उल्लास और गहमा गहमी रही . नेताओं को घाट घाट पर देखा गया या यूँ कहिये , जमुना जी के घाट पर भई नेतन की भीड़ . इससे यह भी मतलब निकला जा सकता है , उन छुट भैया नेताओं को भी घाट मिले जो न तो घर के थे न ही घाट के . घाट पर नेताओं का हो जमावडा तो क्या यह सुर्खी नहीं बनती . कई दिन तक अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर यह छाया रहा और छठ के मौके पर नेताओं ने खूब जलवा बिखेरा .

दिल्ली दरअसल राजनीती का महासमर स्थल है, पौधशाला है, प्रयोगशाला है और विश्वविद्यालय होते हुए भी सचमुच राजनीती का अखाडा है . यहाँ हरेक घटना का राजनीतिकरण होने में देर नहीं लगती. यहाँ की वायु को राजनीती की गंध, सुगंध, दुर्गन्ध से जुदा नहीं किया जा सकता. यहाँ हर प्रकार के प्रदुषण के खिलाफ आवाज़ उठती है मगर राजनितिक प्रदुषण को लेकर कोई चिंतित नहीं होता क्योंकि राजनीती तो दिल्ली की प्राणवायु है , सचमुच आक्सीजन है और इसमें जितना भी प्रदुषण हो , जितनी भी क्रिमिनल डाइऑक्साइड मिले राजनीती पर कोई असर नहीं होता अपितु यह और प्रखर , त्वरित ,मुखरित और नवीन, समकालीन और रंगीन होती है . तभी तो दिल्ली में हर घटना का इस तरह राजनीतिकरण हो जाता है जैसे बस में सफ़र करते करते युवक अपनी निगाहों से भी युवतियों की इव टीजिंग कर देते हैं . यहाँ कोई मरा तो राजनीती, किसी बड़े परिवार में जन्म पर राजनीती, दुर्घटना पर राजनीती , नीति और नियत पर राजनीती, बीमारी महामारी पर राजनीती, लाचारी पर राजनीती, त्यौहार पर राजनीती, दुराचार पर राजनीती, फीस पर टीस पर राजनीती, कीमतें गिरने पर राजनीती और महंगाई पर राजनीती होने लगती है . रोजा इफ्तार आयोजन की दौड़ में नेताओं की राजनितिक महत्वकांक्षा और रामलीलाओं तथा छठ पर्व में घाट घाट पर हाजिरी देने की ललक के पीछे भी तो कुछ न कुछ राजनितिक मनोभावना है . सभी नेताओं की इच्छाएं पूरण हों यही हमारी शुभकामनायें हैं .

गोल्डन एम् एल ए

देश का एक प्रमुख प्रान्त है महाराष्ट्र --यह अपने आप में अनूठा है . यहाँ की घटनाये प्रेरक और मनोरंजक होती हैं . आप ने कभी किसी महिला को खुले आम दो किलो सोना डाले हुए देखा है , शायद नहीं . मगर महाराष्ट्र में एक एम् एल ए हर वक़्त ३६ लाख रुपये के ढाई किलो सोने के आभूषण डाले हुए निकलते हैं . चुनाव भी उनहोंने इसी वेशभूषा और आभूषणों में लड़ा . पूना जिले के खडगवासला से एम् एल ए देश के पहले ऐसे विधायक हैं जिन्होनें इस तरह अपना आभूषण प्रदर्शन किया है . हालांकि बाहुबल प्रदर्शन तो अक्सर विधायक विधानसभा में करते हैं . इस विधायक की पार्टी के तेज़ तर्रार और मराठी बोलने में रौबदार अध्यक्ष ने एम् एल ए से आभूषण उतारने को कहा है . चिंता इस बात की है अगर विधायक देखा देखी इसी तरह आभूषण डाले निकलने लगे तो डाकू और बदमाश लड़कियों और धन पशुओं की जगह विधायकों का अपहरण करने लगेंगे .

आधी आबादी ,पूरा हक

आधा है तो पूरे का इरादा है । आधी दुनिया पूरा हक , रोक सकोगे कब तक ? राज करेगी औरत, बाकी रहे न कोई, यह जग सारा अपना , रोक सके न कोई । ये आवाज़ मेरी आपकी या हमारी नहीं है , ये आवाज़ है हमारे मुल्क की औरतों की । हमारे देश की औरतें अब पूरे राज काज पर कब्ज़ा करने के लिए अंगडाई ले रही हैं। उनके इरादे बुलंद हैं , उन्हें चुनौतियाँ पसंद हैं। अब सरकार ने पंचायतो , नगर पालिकाओं और नगर निगमों यानी तमाम लोकल बाडीज में औरतों के लिए आधी यानी पचास फीसद सीटें रिज़र्व करने का अहम् फैसला किया है । इस का मतलब है , लोकल बाडीज में एक तिहाई सीटों को रिज़र्व किए जाने पर औरतों के हाथ में सरकारी काम काज और राज काज की जो कमान आयी थी उसे उनहोंने कामयाबी से अंजाम दिया है । औरतों ने दिखा दिया है , न तो वो रबर स्टांप हैं और न ही कोई खिलौना । लोकल बाडीज में एक तिहाई सीटें मिलने पर पहले पहले तो औरतों को कटपुतली बना कर मर्दों ने मनमानी करने की कोशिशें की मगर हमारे मुल्क की औरतों ने इन कोशिशों को बेअसर करते हुए यह साबित कर दिया है , मर्द भले ही बौना है औरत नहीं खिलौना है ।

औरत सदियों से यह दिखा चुकी है , मर्द घर नहीं चला सकता क्योंकि घर का बजट बनाना मर्दों के लिए मुमकिन नहीं है । घर का बजट बनाना देश के बजट बनाने से भी कहीं ज़यादा मुश्किल है। । औरत घर चलाती है , परिवार चलाती है और कई बार तो मर्दों को हांकती भी है । संसार में इस प्रकार के उदाहरण भी हैं जब एक मज़बूत औरत रूलर
ने मर्दों को अपनी मर्ज़ी से चलाया या यूँ कहिये हांका । हमारे मुल्क में अब भी एक रीजनल पार्टी की सदर एक ऐसी औरत हैं जिसके आगे उस पार्टी के मर्दों को ज़मीन पर लेट कर सलाम करना पड़ता है । बहरहाल ये तो बहस का मुद्दा हो सकता है मगर इस बात को तो मानना ही होगा , अब लोकल बाडीज में औरतों के लिए पचास फीसदी सीटें रिजर्व हो जाने के बाद नगर निगम मैं आधी महिलाएं दिखाई देंगी , नगर निगम इमारत में औरतों के टायलेट की तादाद बढ़ जायेगी और हो सकता -- इस इमारत में एक बालवाडी भी खोलनी पड़े जिससे छोटे छोटे बच्चों वाली कारपोरशन की सदस्यों को आसानी हो और वो कारपोरशन की मीटिंग के दौरान अपने तुतलाते बच्चों के लिए भी हाज़री लगा सकें। कारपोरशन के सदन में आधी से ज़्यादा औरतें होने से बहस का म्यार बदल जाएगा , सदन रंगीन जाएगा , सदन का नज़ारा बदल जाएगा और विजिटर गैलरी में रोज़ बिगडैल लफंगे आ कर धम्म चौकडी लगायेंगे और बिना बात के औरतों की तक़रीर की तारीफ़ में पुल बंधेंगे । ये तो सब ठीक है मगर मर्द क्या करेंगे । औरतों के पति या तो उनके साथ पर्स उठा कर घुमंगे , या उनका दफ्तर चलाएंगे , या फ़िर रात में ऐसे ख्वाब देखेंगे --औरतों का रिजर्वाशन खत्म होने वाला है ।

चुनाव जंगल में

लगता है चुनाव सभ्यता में नहीं जंगल में होते हैं तभी तो एक नेता दूसरे को चूहा और एक अन्य नेता किसी एक नेता को मेंडक कहता है । इतना ही नहीं हरेक नेता अपने को तो शेर कहता है मगर दूसरों को बन्दर, गधा, लोमडी, लंगूर और कुत्ता कहते हुए कह देता है कि ये तो बस बक बक ही कर सकता है। मुझे एक चुनाव याद है जब देश की एक सबसे बड़ी नेता दक्षिण में चिकमगलूर से उम्मीदवार थीं तो उनके ख़िलाफ़ सारा विपक्ष एकजुट हो गया था और इस बड़ी नेता को तरह तरह से बदनाम किया जाने लगा तो इस बड़ी नेता के समर्थकों ने एक नारा दिया, चिकमंगलूर चिकमंगलूर , एक लोमडी सौ लंगूर ।
इस से लगता है , सभी नेता चुनाव को जंगल का दंगल समझते हैं और एक दूसरे को पशुओं का नाम देते हैं तभी तो चुने जाने के बाद सदन को जंगल का अखाडा और ख़ुद को जानवर जैसा प्रर्दशित करते हैं।

कैटल क्लास

फर्स्ट क्लास , सैकंड क्लास । थर्ड क्लास तो सुना था , कैटल क्लास तो अब सुनाई दिया है । थर्ड क्लास के अपमान और म्यार के मद्देनज़र रेलवे ने तो थर्ड क्लास को ही दूसरे मायने में सैकंड क्लास कर दिया था । हवाई जहाज़ में तो दो ही क्लास होती हैं ---ऐज़कुतिव

और इकानामी क्लास लेकिन अब एक जिम्मेदार और अंतर्राष्ट्रीय फेम के एक बड़े आदमी ने इकानामी क्लास को कैटल क्लास यानि मवेशियों के लिए हवाई जहाज़ में बनी सीट कह दिया है । ये बड़ा आदमी एक बड़े मंत्रालय में छोटा मंत्री है । एक सवाल यह उठता है ,अगर इस बड़े आदमी को रेलवे के सैकंड क्लास के गैरs आरक्षित कम्पार्टमेंट में सफर करना पड़े तो उसे वह चींटी क्लास कहने को मजबूर हो जायेंगे । इस कम्पर्त्मंत
में मुसाफिर एक दूसरे के साथ सटे सटे , धक्के खाते हुए ,ऊपर नीचे लटकते ,गिरते , थकते, दबते हुए सफर करते हैं । या यूँ कहिये, चीतींयों की तरह रेल डिब्बों में भरे होते हैं । कई लोग तो मुश्किल से ही साँस लेते है ।
ऐसे बड़े आदमी को शायद मालूम नहीं होगा कि महात्मा गाँधी भी थर्ड क्लास के गैर आरक्षित डिब्बे में सफर किया करते थे । अगर आम आदमी की नब्ज़ की सही रूप से जानकारी लेनी है तो गैर आरक्षित डिब्बे , यात्री बस , रेल स्टाप पर हो रही बेबाक बातचीत यानी गुफ्तगू ही फायदेमंद रहती है । मगर उन बड़े आदमियों का क्या किया जाए जो आम आदमी से हट कर और कट कर रहना चाहते हैं । यह बात अलग है कि ऐसे बड़े लोग अक्सर आम आदमी को ठगते हैं। इलेक्शन के वक्त तो ऐसे बड़े आदमी झुग्गी झोंप्री में घुड़साल में रहने वाले आदमी से भी उम्मीद के मुन्तजिर होते हैं। कड़कती धुप में काम कर रहे अधनंगे मजदूर को भी बड़े आदमी पूरी इज्ज़त के साथ नमस्कार करते हैं और उनके सामने झुके झुके दिखाई देते हैं।

यह सच है कि इलेक्शन के बाद और उससे पहले का दौर और मंत्री बन के रहने का दौर एक जैसा नहीं माना जा सकता । इलेक्शन जीतने और मंत्री बनने के बाद रहन सहन, चाल ढाल , नजरिया सोच सब बदल जाता है । ऐसे में आम आदमी गिरा हुआ इंसान दिखाई देता है। बड़े आदमियों को ऐसे आम आदमियों से बदबू आने लगती है और इलेक्शन के दिनों में गले मिलने से परहेज़ नहीं करने वाले बड़े आदमी अब आम आदमी से हाथ भी नहीं मिलाते , हाथ तो दूर नज़रें भी नहीं मिलाते । अचानक जनता जनार्दन बड़े आदमियों को बोझ लगने लगते हैं।

ऐसे ही एक बड़े आदमी ने इकानामी क्लास को मवेशी क्लास तो कहा मगर यह नहीं सोचा कि हिन्दुस्तान के महज पाँच फीसद लोग ही अपने बूते पर हवाई जहाज़ की इकानामी क्लास में सफर कर सकते हैं। इस तरह इकानामी क्लास को मवेशी क्लास कहने से देश के गरीब और मध्यम वर्ग के लोग आहात हुए हैं। मवेशी क्लास का बवाल बन रहा है। आम आदमी इस घटना से आहत है और अब तो इस बड़े आदमी की पार्टी के एक सी ऍम ने इस बड़े आदमी के इस्तीफे की मांग भी कर दी है ।

मेंस फैशन शो

देश की राजधानी दिल्ली सदैव ज्यादातर क्षेत्रों में सबसे आगे रहती है । दिल्ली में ही पहली बार आयोजित किया गया आल मेंस फैशन शो। एक ऐसा फैशन शो या फैशन परेड जिसमें केवल आदमी शामिल हुए । इस शो में कहने को तो नजाकत और नफासत की धनी सॉफ्ट स्किन नदारद थी मगर शो में शामिल पुरुषों में इन गुणों के अंश दिखाई दे रहे थे । कहते हैं कि फैशन का रिश्ता तो केवल महिलाओं से होता है मगर पुरुषों ने इस धारणा
को पूरी तरह तहस नहस कर दिया है । जिस तरह रैंप पर अलग अलग सजीली , रंगीली , चमकीली , रसीली , तंग और ढीली पोषक में थिरकते हुए पुरूष दिखाई देने लगे दर्शकों पर बिजलियाँ गिरने लगीं । पुरुषों ने दिखा दिया कि फैशन का जादू सर चढ़ कर बोलता है जी हाँ ऐसा सचमुच दिखाई दिया और इस शो की सराहना करने वालों में औरतों से ज़यादा आदमी थे जो शायद इस नए चलन का समर्थन कर रहे थे । इस फैशन शो में ड्रेस डिजाइनरों की फैशन सेंस का जलवा स्थापित हो गया । फैशन तो व्ही होता है जो व्याकुल आंखों को शीतल कर दे तभी तो कहते है ,फैशन कूल कूल करता है मगर हॉट होता है। इस शो में पुरुषों ने नए नए ड्रेस के साथ अपने हैण्ड
सम होने की ताईद कर दी । अक्सर कहा जाता है कि फैशन और शर्म का शेर और बकरी का सम्बन्ध होता है तभी तो पुरुषों ने भी फैशन के इस रैंप पर महिलाओं की
तरह अंग प्रदर्शन में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । फैशन में तो सब जायज़ ही माना जाता है , संसार इस का पुख्ता सबूत है ।

छोटी मछली , बडी मछली

समंदर में कितनी मछलियाँ होती हैं --इस का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता । इनमें होती हैं - छोटी मछली , मोटी मछली , पतली मछली, लम्बी मछली ,बड़ी मछली , नाटी मछली । मछलियों का संसार ही निराला होता है , पानी से बाहर उनका अँधियारा होता है तो पानी में उनका उजाला होता है। पानी ही उनके लिए सही मायने में आक्सीजन होता है और पानी उनके लिए सचमुच जीवन होता है। मछली के लिए पानी के बिना सब कुछ सून होता है और पानी ही में उनका बचपन , जवानी , बुढापा और हनीमून होता है ।
काली मछली , चमकीली मछली, सुनहरी मछली , सफ़ेद मछली सभी तो पानी में अपनी मौज मस्ती दिखाती हैं मगर बड़ी मछली से हरेक छोटी मछली घबराती है । छोटी का तो बड़ी काम तमाम कर देती है फ़िर भी मछलियाँ कम नहीं होती ।
जिस तरह समंदर में अनगिनत मछलियाँ हैं उसी प्रकार हमारे मुल्क की माली हालत में इतनी मछलियाँ हैं जिनकी गिनती करना मुमकिन नहीं है । यहाँ की बड़ी बड़ी मछलियाँ सरकार को खरीदने , सरकार चलाने ,सरकार बनाने और सरकार गिराने का दम भरती हैं ।
ऐसी ऐसी बड़ी मछलियाँ है जिनके खिलाफ एक्शन लेने में कानून की हिफाजत करने वाली आला एजन्सिंयाँ घबराती हैं । ऐसी बड़ी बड़ी मछलियों की चलती है और ये आला अफसरों की खिदमत के लिए दौलत के दरवाज़े खोल देती हैं।
जिस तरह हमारे मुल्क में अमीर गरीब को एक साथ जीने और आगे बढ़ने का हक है उसी प्रकार छोटी मछलियाँ भी हांफते कांपते अपना धंधा चलाती हैं । जी हाँ , छोटी मछलियों की रियासत कुछ कमरों तक महदूद रहती है मगर वह भी कानूनी , गैर कानूनी तरीके से अपना वाजिब और काला धंधा करती रहती हैं । ये बात अलग है - उन्हें यह डर सताता रहता है , कहीं कोई बड़ी मछली उन्हें निगल न जाए या फ़िर कोई सरकारी कारिन्दा उनकी गर्दन दबोच न ले । बहरहाल छोटी मछलियाँ भी कानून के कमज़ोर पहलुओं का फायदा उठा कर सरकार की इकनोमी को चूना लगाती हैं मगर बड़ी मछलियाँ तो अपनी कुव्वत ,हिम्मत और ताकत और दौलत की वजह से सरकार की अर्थ व्यवस्था को दिवालिया या फ़िर लंगडा कर देती हैं ।

मछलियाँ इतनी ज़्यादा है ----सरकारी महकमे इनके खिलाफ एक्शन क्या इनकी पहचान भी नहीं कर पाते । पहचान हो भी जाए तो मछलियाँ अपने बचाव के लिए पहचान तलाश लेती हैं और ले दे कर मामला रफा दफा करा लेती हैं। हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तान क्या होगा । हर सिम्त -मछलिया ही मछलियाँ है , इस देश का यारो क्या होगा ।
अब बड़ी मछलियों को काबू में लेने का जो संकेत दिया गया है , उसकी तारीफ़ की जानी चाहिए मगर बड़ी बड़ी मछलियों को गिरफ्त में लेने के लिए बड़े बड़े जाल की ज़रूरत होगी क्योंकि बड़ी मछलियाँ तो छोटी छोटी मछलियों को ख़त्म कर के और ज़्यादा बड़ी हो रहीं हैं और इस तरह हमारी इकानामी को खतरा भी बढ़ रहा है ।

प्राण जाए पर पद न जाए

mohe kursi laage प्यारी, मेरी कुर्सी जान से प्यारी। न जाने कितना प्यार हो जाता है कुर्सी से। शायद अपनी संतान से भी ज़्यादा प्यारी लगने लगती है कुर्सी , कुर्सी पर काबिज़ व्यक्ति के विवेक को छलने लगती है कुर्सी, दुनिया जहान के हरेक रिश्ते से न्यारी लगती है कुर्सी ।

ये कुर्सी कितने लोगों को ध्रतराष्ट्र बना देती है क्योंकि पद पर रहते हुए कुर्सीधारी को अपनी औलाद का भी कोई बुरा काम दिखाई नहीं देता , उसकी आलोचना सुनाई नहीं देती और अपनी जुबान इतनी अचेतन हो जाती है कि वह कुछ कह नहीं पाती । दूसरे शब्दों में कहें तो कुर्सीधारी अपनी संतान के मोह में अँधा , बहरा और गूंगा हो जाता है फ़िर भी उसे कोई मलाल नहीं होता और वह सोच भी नहीं सकता कि कभी कुर्सी छोडनी पड़ेगी ।

औलाद की वजह से कुर्सी पर खतरा मंडराने के कई उदहारण हैं । हमारा पिछला पाँच दशक का इतिहास ऐसी घटनाओं की बानगी है ।
हाल ही में अपने कथित सुपुत्र की करतूतों के कारण मीडिया में कथित रूप से विख्यात हुए एक वरिष्ठ नेता ने तो साफ़ साफ़ कह दिया कि पद कभी नहीं छोडूंगा भले ही प्राण चले जायें । उनके दर्द को कोई तो समझने की कोशिश करे । उनका दर्द वाजिब है । क्या कोई पिता अपने पुत्र के दुःख और परेशानी से अलग थलग रह सकता है । हरेक पिता की यह कोशिश होती है कि वह अपने मुसीबतजदा पुत्र की मदद करे । अगर बदनामी के डर और सिधांत तथा ईमानदारी की वजह से वह त्याग पत्र दे देता है तो पुत्र की रक्षा और सहायता कैसे होगी । पुत्र का बचाव कुर्सी पर बने रहने से सम्भव है इसलिए कुर्सी को बेवजह लात मारना सही नहीं लगता क्योंकि संकट में फंसे व्यक्ति की मदद करना भी तो धर्म होता है ।

kuch udahan aise bhi हैं जब औलाद की करतूत की वजह से फंसे कुर्सी पर काबिज़ पिता ने कुर्सी छोड़ने के बजाये पुत्र से रिश्ता छोड़ने की घोषणा कर दी मगर कुर्सी पर रहते हुए पुत्र का बचाव करते रहे । यह पुत्र एयरपोर्ट पर घड़ियों की स्मगलिंग करते हुए पकड़ा गया था और उसका पिता उस समय देश की चुनी हुई सरकार में बड़े पद पर थे । उनहोंने पुत्र को बचाने की भरसक कोशिश की । उसे हरियाणा में कुर्सी पर बैठने की दो तीन बार कोशिश की । वे कामयाब भी हुए लेकिन युवराज कुछ दिन तक ही पद रह सका क्योंकि विरोध भारी था। यह बात अलग है कि दो दशक बाद वह पुत्र फ़िर सत्ता में आया मगर उसका और घोटाला का रिश्ता जारी रहा ।

एक बार एक लोकप्रिय विधायक छात्रों के हितों की रक्षा करने उनके धरने में गए और वहां भाषण देने लगे । छात्रों ने कहा कि अगर हमारे हित इतने प्यारे हैं तो असम्बली से इस्तीफा दे दीजिये , इस पर विधायक ने कहा ,यह तो बहुत छोटी चीज़ है मैं तो आपके लिए जान दे सकता हूँ । आख़िर कुर्सी छोटी हो या बड़ी बनी रहनी चाहिए ।

आंसू

भार आंसू का आंखों से उठाया न गया । गाल तक पहुँचा तो फिर ठुकराया गया ।

टेढी खीर

मुसद्दी लाल के घर में आज रौनक थी , सभी के चेहरे खुशिओं से भरपूर थे । मुसद्दी लाल की पत्नी और तीन बच्चे भी चहक रहे थे क्योंकि आज बच्चों के मामा अपनी बहन के घर आ कर टिके थे । मुसद्दी लाल की पत्नी का नाम तो सीता है मगर उसके पति प्यार से उसे धन्नो पुकारते हैं । धन्नो भी बेहद खुश थी। जी हाँ उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था और मुसद्दी लाल यह सोच कर ख़ुद को खुशकिस्मत मान रहा था कि कुछ भी हो आज धन्नो के चेहरे पर कोई शिकन नहीं है । मुसद्दी लाल एक सरकारी दफ्तर में मामूली सा क्लर्क है । उसे यह नहीं मालूम था कि उसके लिए तसल्लीबक्ष माहौल कब तक ऐसा बना रहेगा । वह तो मन ही मन यही दुआ कर रहा था कि घर में जो कुछ मौजूद है उसी से मेहमान नवाजी पूरी कर ली जाए क्योंकि महीने की २८ तारीख यानी महीने के आखिरी दिन । इन दिनों में तो बाबू की जेब वैसे ही जवाब देने लगती है जैसे गैस का सिलेंडर आखिरी सांसें लेता है। मुसद्दी लाल भले ही खुश था मगर अन्दर ही अन्दर उसे यह महसूस हो रहा था कि अगर बाज़ार से कोई चीज़ मंगवानी पड़ी तो ढोल की पोल खुल जायेगी । उसने चुपके से जा कर धन्नो से कहा ---देखो जो है घर में उसीसे गुज़ारा कर लेना । धन्नो ने भले ही कोई जवाब नहीं दिया मगर उसने इस तरह आँखें दिखाई जैसे जल्लाद फांसी
चड़ने वाले को घूरता है । धन्नो बोली ---क्या कह रहे हो सरकारी क्लर्क , तीन साल बाद मेरा भाई घर आया है तो आव भगत तो करूंगी ,थोडी सी खीर बनाऊँगी, बच्चे भी खुश हो जायेंगे । इतना सुनते ही मुसद्दी लाल को पसीना आने लगा । अभी कल ही तो उसने एक मंत्री का ब्यान अखबार में पढ़ा था कि चीनी और चावल की कीमतें बेकाबू हो रही हैं । कुछ दिन पहले ही तो उसने दूध के दाम बढ़ने पर अपने घर की दूध की सप्लाई तीस फीसद कम कर दी थी। खीर का नाम सुनते ही मुसद्दी लाल के सीने में तीर चुभने लगे। उसे मीठी खीर भी टेढी खीर लगने लगी। मुसद्दी लाल ने सोचा कि अब तो उसकी आन ,बाण , शान दाव पर है अब तो कुछ न कुछ करना होगा । कुछ दिन पहले तो वह अपनी कलाई घड़ी गिरवी रख के घर का राशन भरवा चुका था आज उसे धन्नो की घड़ी दिखाई दी । उसने चुपके से उस खड़ी को थैले में लपेटा और टेढी खीर को मीठी खीर बनाने के लिए लाला की दुकान पर पहुँच गया ।

ऐ हेवन इन जेल ......इंग्लिश में

A Heaven In Jail---------Sat Pal



The state governments have been claiming to undertake reforms in their jails though it has not been possible by any of them to turn their jails into heaven where the inmates probably could not feel any dearth of comforts. The efforts and claims are numerous which are also being disseminated forcefully to give an impression of the welfare aspects of the governments. The claims are definitely like bringing moon on this earth, anyhow, there are people who believe in these tall claims. Despite that, nobody likes to be an inmate in the jail. But, we are afraid, that many people may like to be in the jails, of and on, as one comes across a number of stories appearing in the papers stating that there is infinite freedom in jails and huge possibilities of wish fulfillment, though by paying a price. It is not a bad bargain to achieve a particular comfort in exchange of some money in jail where it becomes impossible to dream freely.

There are certain instances, which have come to our notice. A jail in Haryana has become a dream comfort zone for the dreaded gangsters. It is unusual though true, as true as emergence of dawn after pitched darkness of night. In Bhondsi jail in Haryana, the gangsters have been partying, relishing five star cuisines, watching blue films with the help of DVDs, making hay in credit business, using mobile phones, capturing snaps, smoking and drinking alongwith senior police officials. All this is possible and protected on making payments to high ups in jail. This is a heaven in fortified jail. This has been revealed through a sting operation conducted by a TV channel. Will the authorities wake up to this?

The state of Punjab boasts of its reforms in jails. The government has been a bit sensitive to the loneliness of inmates serving long sentences. It has of late realized that such prisoners generally indulge in notorious activities inside the jail i.e. they become druggist, rapists and indulge in even sodomy. They also become violent just because of their forced detachment from their loved one family members and because of their unfulfilled sex desires. This all develops in their attitude due to their longer stay in jail barracks where they are forced to put up on the whims of the jail authorities. The state government has since resolved this different problem. The government is mooting to offer a week’s time olive to such inmates. They are likely to be offered a soothing stay with their children and life companions to provide then an opportunity to do away of their mental and other emotional woes. Of course they would be able to satisfy their sexual lust and express their affectionate sentiments by freely interacting with their kids and young children. All this could be true in specially designated residential suites in side the jails. Is not going to be a heavenly experience? Of course without making any under the table payment but it is all going to come free of charge--courtesy, the government?

सड़क

इस पर चलते, आगे बढ़ते, नारे लगाते सब को मिला गतिशील नेत्रित्व मगर उसे नहीं मिला ।

सब्जी सम्मलेन

बापू के अहिंसक देश की राजधानी दिल्ली में आयोजित सब्जी सम्मलेन में इस बात पर चर्चा होनी थी कि सबसे अधिक चाकू और छुरियां हर रोज़ सब्जियों पर ही चलते हैं। सम्मलेन में लगभग हरेक सब्जी हिस्सा लेने पहुँची। सबसे पहले सम्मलेन की अध्यक्षता करने का दायित्व किस सब्जी पर सौंपा जाए , इस पर चर्चा हुई। इसे देख कर लगा कि सब्जियों में भी नेताओं की तरह प्रमुख नेत्रत्व सँभालने की व्यग्र इच्छा है। सम्मलेन में मुख्य विषय पर चर्चा से पहले ही , अध्यक्षता के मुद्दे पर गर्मागर्म बहस और एक, दूसरी सब्जी की आलोचना और आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला चलता रहा ।अध्यक्ष का चुनाव र करना सचमुच इस्राइल और फिलस्तीन समस्या का समाधान जैसा अहम मुद्दा बन गया। सबसे पहले आलू ने अध्यक्षता के लिए अपना दावा पेश किया तो हर दिशा से आवाजें आने लगी कि ये आलू क्या अध्यक्षता करेगा, जिसका अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं है। आलू तो हरेक सब्जी के साथ मिल कर ही अपनी पहचान बनाता है। जब सीताफल का दावा आया तो आपत्ति उठी कि इसका अपना नामn भी नहीं है। सीता के नाम पर ये सब्जी कैसे अध्यक्षता कर सकती है , क्या कोई अनाम या किसी नाम की पिछलग्गू सब्जी भी सदारत कर सकती है।भिन्डी यानि लेडी फिंगर के दावे पर भी सभी सब्जियों ने पानी फेर दिया और कहा कि लेडी की नजाकत वाली सब्जी अध्यक्षता के दायित्व का भार नहीं संभाल सकती। प्याज़ ने भी अपना दावा पेश करते हुए कहा कि उसमें तो सरकारें बदलने तक की ताकत है मगर बाकी सब्जियों ने कहा कि हमें प्याज़ को सदारत दे कर अपनी अपनी आँखों में आँसू की धारा नहीं लानी। इस प्रकार अश्रुधार और आँखों में जलन के सूत्रधार का दावा भी खारिज हो गया। प्याज़ भी मायूस दिखाई दिया। टिंडे के दावे को तो यह कह कर रद्द कर दिया गया कि टिंडा सा छोटा सा टिंडा क्या सदारत कर सकेगा। बैंगन भी दावा करने में पीछे नहीं रहा मगर सभी सब्जियां बोली कि थाली के बैंगन की क्या औकात कि वह सब्जी सम्मलेन की अध्यक्षता कर सके। हरी मिर्च के दावे को इस प्रकार बेदम कर दिया गया कि यह कोई अलग से सब्जी नहीं है। आम के दावे को इसलिए खारिज क्या गया कि यह सब्जी नहीं अपितु फलों का राजा है ।कद्दू और घीये के दावे को तो सिरे से ही सब्जियों ने समाप्त कर दिया और कहा कि अध्यक्षता के लिए कम से कम छवि तो होनी चाहिए । जब छवि की बात हुई तो पालक ने दावा पेश कर दिया और कहा कि हर तरफ़ हरियाली और खुशहाली का माहौल होगा यदि उसे अध्यक्षता सौंप दी जाए तो। इस पर कहा गया कि पालक के अध्यक्ष बनने पर तो हरियाली के अंधे को भी हरा हरा दिखे गा। इसलिए पालक को तो अध्यक्ष नहीं बनाया जा सकता। नीम्बू के दावे पर तो सभी सब्जियां हंसने लगीं और कहा कि नीम्बू का तो तब तक असर रहेगा जब तक उसमें रस होगा , उसके बाद तो वह बेअसर हो जाएगा। जिमीकंद और कटहल के दावे पर कहा गया कि जाओ ,जाओ पहले शीशे में अपनी शक्ल तो देख लो। अब दावा पेश करने की टमाटर की बारी थी। टमाटर के दावे पर तो सभी सब्जियां व्यंग्य करने लगीं और कहा , अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठते ही यह दब जाएगा और इससे छींटे निकलने लगेंगे। बहरहाल सभी सब्जियों के दावों की हवा फुर्र कर दी गई, बहुत कोहराम हुआ और सम्मलेन शरू भी नहीं हो सका । इसे देख कर शान्ति की प्रतीक मूली बोली , बहनों और भाईयो यदि इसी प्रकार लड़ते रहे तो मुख्य मुद्दे पर चर्चा कैसे करोगे, यूँ ही चाकुओं के वार सहते रहोगे ,कराहते रहोगे। यदि इससे बचना है तो अपनी जड़ों को मज़बूत करो , यानि अपनी अपनी ज़मीन पक्की करो ताकि हमें कोई उखाड़ न सके , जब हम उखरेंगे नहीं तो चाकुओं की मार से भी बच जायेंगे। इस पर सभी ने कहा , वाह वाह ये किस खेत की मूली है, मगर इसकी बात नहीं मामूली है। इस पर सम्मलेन में शान्ति हुई और अध्यक्ष चुनने का मुद्दा अगले सम्मलेन के लिए स्थगित कर दिया गया और हर सम्मलेन की परम्परा के अनुसार एक समिति का गठन किया गया और प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई सम्मलेन कामयाब रहा ।

ये तेरा मरघट , ये मेरा मरघट

देश की चर्चा उत्तर प्रदेश के बिना अधूरी मानी जाती है । ये तेरा घर , ये मेरा घर । इसके बाद अब महसूस हो रहा है - ये तेरा मरघट , ये मेरा मरघट । इसका मतलब है कि मरने के बाद भी छूआछात और असमानता की लानत पीछा नहीं छोडेगी । राज्य की मुख्यमंत्री के गाँव बादलपुर में सरकार ने ५३ लाख रुपये की लागत से सवर्णों के लिए और ४० लाख रुपये की लागत से दलितों के लिए अलग अलग शमशान घाट बनाये हैं । कहते हैं कि इन शमशान घाटों में केवल बादलपुर और बारी के उन निवासियों को जलाया जा सकेगा जिनका देहांत होगा और बाहरवाले ताकते रह जायेंगे तथा उनके परिवार वालों को शव उठा कर दूर दूर जाना और परेशानियों का करना होगा सामना । ये तेरा मरघट , ये मेरा मरघट। मरने के बाद भी ये कैसा आरक्षण ?

ये प्रापर्टी डीलर्स

प्रापर्टी बाज़ार में बनावटी , दिखावटी उतार चढाव लाने और सजावटी सपने बेचने वाले प्रापर्टी डीलरों की माया भी अपरम्पार है । इस माया को समझ पाना बहुत कठिन है क्योंकि इस माया का मकसद नकद यानी माया के मायाजाल से ज़्यादा से ज़्यादा माया कब्जे में लेना है । इसके लिए भले ही कितनी गलत बयानी न करनी पड़े और कितने ही पापड़ न बेलने पड़ें । माया तो वैसे सब को आकर्षित करती है मगर सच मानें तो माया के भरमाये सत्य , तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता। कई लोगों का कहना कि जल्दी रिटर्न हासिल करनी हो तो प्रापर्टी का धंधा सबसे बेहतर है मगर प्रापर्टी डीलरों की सुनें तो उनका दर्द भी कुछ हद तक सही प्रतीत होता है। उनका कहना है कि कई कई दिन तक कोई सौदा नहीं होता , होता है तो टूटने का डर रहता है । प्रापर्टी डीलरों के लिए सौदा टूट जाना रिश्ता टूट जाने से कम दुखदायी नहीं होता क्योंकि उनका काम दो पक्षों का मेल कराना है भले ही इस चेष्टा में ब्राडगेज पर स्टैण्डर्ड गेज की और स्टैण्डर्ड गेज पर नैरो गेज की गाड़ी चढा दी जाए या फिर देसी घी के साथ कड़वे तेल का मेल करा दिया जाए। सौदा सिरे चढ़ने के बाद तो बेमेल सौदे वाले को ख़ुद ही भुगतना पड़ता है । यह बात अलग है कि हरेक प्रापर्टी डीलर यह दावा करता है कि उसने कुछ भी छिपाया नहीं है , केवल सौदा कराने के लिए शब्दों की बाजीगरी की है। इन दिनों प्रापर्टी डीलरों का सब से बड़ा दर्द यह है कि उन्हें फैनान्सरों के शिकंजे में कसे होने का कष्ट सता रहा है । तभी तो वे कोशिश करते है कि किसी भी तरह उनके बिछाए जाल में मछली तो फंसे । इसी कशमकश में वे खरीदने वालों को कुछ दाम बताते हैं तो बेचने वालों को कुछ और दाम बताते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रापर्टी डीलर के बिना गुजारा भी तो नहीं। इतनी आबादी है, इतने परिवार हैं जिन्हें मकान की दरकार है आख़िर वे कहाँ जायें । यहाँ प्रापर्टी डीलर ढूंढ़ना मुश्किल नहीं है । ये तो कुकुरमुत्तों की तरह पनप रहें हैं । अब तो ये ख़ुद को प्रापर्टी डीलर या दलाल कहलाना पसंद नहीं करते क्योंकि वे इस्टेट कन्सल्तैंत बन गए हैं। कुछ हद तक पहले भी इज्जतदार थे अब जयादा इज्जतदार बन गए हैं । इज्जतदार हैं क्योंकि वे सिर्फ़ बातों का खाते हैं और अपनी बातों से ही ज़रूरतमंद लोगों का मेल कराते हैं। इतना ही नहीं आप को सपनों में नहीं वास्तविक रूप में आपके सपनों का घर दिलवाते हैं ।

थाना बना मयखाना

ये दिल्ली है मेरी जान, यहाँ हर दिन बनता है नया फ़साना श्रीमान । देश की राजधानी में खुले आम एक पुलिस थाना रात होते होते मयखाने में बदल गया । जश्न का माहौल था न कि कोई मखौल था । जश्न था एक सब इंस्पेक्टर की तरक्की यानी इंस्पेक्टर बनने और एक सब इंस्पेक्टर की ठाणे में तैनाती का । जश्न ज़ोरदार था क्योंकि यह एक साथ दो खुशिओं का सबब बना हुआ था। खुले आम शराब पार्टी पूरी मौज मस्ती और शोर शराबे के साथ । यह पार्टी किसी दूर दराज के गाँव , जंगल या कसबे में नहीं हो रही थी अपितु राजधानी दिल्ली की एक घनी बसी कालोनी के बीचों बीच स्थित नियमित पुलिस स्टेशन में औपचारिक रूप से टेंट और कनात लगाकर आयोजित की गई थी । इससे लगता है कि हमारी पुलिस कितनी निर्भय हो गई है, कितनी कथित रूप से पारदर्शी हो गई है कि इस पार्टी में इंस्पेक्टर लेवल के आधा दर्जन सेजयादा अधिकारी मौजूद थे । यह हमारे समाज की उचछ्रिनखल्ता का एक नमूना है आख़िर पुलिस भी तो समाज का अभिन्न अंग है । इस पार्टी का खुशनुमा वातावरण इतना मुखर और गुंजायमान था कि आम आदमी के अमन चैन में खलल पड़ने लगा । आख़िर एक संवेदनशील और zimmedaar नागरिक से न रहा गया और उसने पुलिस आयुक्त को एस एम् एस भेज कर इस मामले की शिकायत कर दी। उसने तो शायद अपना फ़र्ज़ निभाया लेकिन इस के बाद ही तो मामले में क्लाइमेक्स
आया । पुलिस आयुक्त ने जिस बड़े एवम वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को जांच के लिए शराब पार्टी के मौके पर भेजा तो वहां के इंस्पेक्टर ने उस वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के हाथ में भी झलकता हुआ जाम पकड़ा दिया मगर जाम से जाम नहीं टकराया , बड़ा अधिकारी इस पेशकश पर नहीं मुस्कराया और थाना इंस्पेक्टर घबराया । ऐसे लगा कि खिली धुप में मूसलाधार बारिश आ गई और शांत हवा के बीच सौ किलोमीटर प्रति घटा की रफ़्तार से तूफ़ान आ गया । बस माहौल बदलने लगा और थाना इंस्पेक्टर जो कि नशे में धुत्त था , गिरता हुआ , मुंह छिपाता हुआ अपनी कार
उठाकर गेट और अन्य गाड़ियों से टकराता हुआ नौ दो ग्यारह हो गया । खुशी का जश्न भगदड़ में बदल गया । उस इंसपेक्टर को तो मुअत्तिल कर दिया गया है मगर इसके बाद पुलिस स्टेशन के अंतर्गत कालोनी में ऐसी खुशी की लहर छा गई जैसे उनके लिए दीवाली आ गई हो । आम आदमी इस इंसपेक्टर के व्यव्हार , दुर्व्यवहार , अनाचार ,निरंकुश भ्रष्टाचार से पहले ही तौबा कर रहा था इसलिए उसे इंसपेक्टर का किसी न किसी तरह पकड़ में आना अच्छा लगा। ये दिल्ली है जनाब। यहाँ जिस स्थान पर जिस काम की मनाही होती है वहीं वह काम करना शान माना जाता है। ठाणे में शराब यानी खुलेआम मयखाना कोई सोच नहीं सकता । लोग वहीं लघुशंका करेंगे जहाँ दीवार पर लिखा होगा कि ऐसा नहीं करें । लोग बस के अगले दरवाज़े से चढेंगे क्योंकि वहां लिखा है कि अगले दरवाज़े से चढ़ना मना है । सार्वजानिक स्थानों और karyalyon में नो स्मोकिंग लिखा है , वहीं से धुएँ के छल्ले उठते दिखाई देते हैं । ये तो कुछ उदहारण हैं मगर खुलेआम थाना मयखाना बनने की कोई मिसाल नहीं मिलती । शायद यहीं पर ऐसे आलम का अंत हो जाए, हम तो यही उम्मीद कर सकते हैं ।

फटी जींस का ज़माना

फटी जींस का ज़माना

दिल्ली सचमुच बहुत निराली है । यहाँ भरा हुआ बर्तन भी दिखता खाली है । यहाँ हालात बदलते हैं , रिश्ते बदलते हैं, कायदे क़ानून बदलते हैं , वायदे बदलते हैं । सब कुछ तेज़ी से बदलता है । इससे भी ज्यादा तेज़ी से बदलता है फैशन ।
जिस तेज़ी से नेता दल बदल करने के लिए अपना ईमान बदलते थे उससे भी ज्यादा तेज़ी से फैशन भी बदलने लगा है। फैशन का आलम तो यह है कि एक शायर ने कहा --अब तो ऐसे लिबास बिकते हैं जिनमे मुश्किल ही तन छिपाना है । कभी सुंदर , सजीले
, शर्मीले , ढीले कपड़े पहनने का फैशन हुआ करता था तो आज कसे हुए, फंसे हुए , सटे हुए कपडों का संसार है । कपड़े जितने कम फैशन उतना गर्म , क्या कहने वक्त की रफ़्तार । आगे क्या होगा मेरे यार । फैशन ऐसा कि अँधा भी देखे तो देखता रह जाए , यानी फैशन से महक भी है ,चहक भी है, रौनक भी है , ज़ोर भी है, शोर भी है , ऐसा शोर जिससे दृष्टिहीन को भी महसूस हो जाए कि नए फैशन का ज़माना है । कुछ साल पहले तक घिसी पिटी, बदरंग, जींस पहनने का ज़माना था तो आज फटी जींस का ज़माना है। यानी जींस की खिड़की खोल के रखना ताकि ज़माने की हवा को आने जाने में कोई दिक्कत न हो । एक घर में तो जब कालेज जाती लड़की फटी जींस ले कर आयी तो उसकी माता ने सिलाई मशीन से उसकी जींस को सिल दिया । इस पर लड़की ने अपनी माता को बताया कि यही तो फैशन है । जी हाँ यही फैशन है , यही पैशन है । कहते हैं कि फैशन अँधा है लेकिन फैशन की दौड़ अंधी है । इतना ही नहीं फैशन ने पूरे ज़माने को अँधा बना दिया है कि आज के ज़माने की poshaak ऐसी है कि पता नहीं चलता कि पहनने वाला है या पहनने वाली है । चलो इतना तो हुआ कि लड़के और लड़की का अन्तर ख़त्म कर दिया नए फैशन ने । फैशन न आलू है , न गाजर है , न मूली है, फैशन तो एक सूली है जिस पर chadhne के लिए आज हरेक युवा युवती तैयार है । भले ही इसके बाद जुलूस ही न निकल जाए । जिस फैशन के जुलूस को जितने ज्यादा लोग देखेंगे उससे तो कामयाब माना jayega । ये फैशन शो , ये रैंप, ये shame प्रूफ़ शरणार्थी मसखरों के कैम्प जुलूस नहीं तो क्या है। इन जुलूसों को देखने के लिए संभ्रांत घरानों के लोग आते हैं और अपनी जायज़ औलाद को नाजायज़ poshaak में देख कर तालियाँ बजाते हैं , वीडियो banvate हैं , टी वी पर चलवाते हैं, अखबार में छपवाते हैं । jab itnaa ho jaata hai to fashion ka jadoo khunkhar ban jata hai aur aise parivaron ke sharifjade aur sharifjadiyan bhi chupke se ja kar fati jeans le aati hain aur ghar aa kar kahti hain khulepan ka zamana hai, sabhi bandish tod do, naye fashion ko thikaana do, naye faishion ko thaur do .

एक गुमनाम मौत

आप भी इस मौत पर ज़रूर अपने अपने दो आंसू बहाना चाहेंगे । जी हाँ इस मौत पर दिल्ली के कई पढ़े लिखे लोगों , पढने वालों और दानिशमंदों ने भी जी भर के आंसू बहाने की कोशिश की । इतने आंसू बहाने पर भी दिल्ली में बाढ़ नहीं आई क्योंकि इस मौत के सदमे में हरेक समझदार aआदमी
इतना दुखी था कि उसकी आँख के आँसू जम गए और कुल मिलाकर दो ही आँसू निकले जैसे आंसूओं ने भी इस जुमले पर अमल कर लिया हो कि दो के बाद बस । आख़िर आप जानना चाहेंगे कि यह गुमनाम मौत का माजरा क्या है । जी हाँ यह एक ऐसी मौत है जिसकी ख़बर सुर्खी नहीं बन सकी , एक ऐसी मौत है जिसके बाद कोई जनाजा नहीं निकला और कोई शोक सभा नहीं हुई । दरअसल यह कुदरती मौत नहीं बल्कि दिन दहाड़े का कत्ल है । यह कत्ल है एक ४५ साल तक जवान रहे अहसास का , ४५ साल तक मददगार रहे बाज़ार का, ४५ साल से इल्म का खजाना बाँट रहे रोज़गार का । यह कत्ल हुआ पुरानी दिल्ली के भीड़ भरे इलाके दरिया गंज के उस फुटपाथ पर जहाँ हर इतवार को हजारों हजारों लोग अपनी ज़रूरत कि किताबे खरीदने के लिए आया करते थे । आप शायद समझ गए होंगे कि ट्रैफिक और ला एंड आर्डर कि दुहाई देते हुए दरिया गंज के बुक्स बाज़ार को बिना किसी नोटिस दिए इतिहास का पन्ना बनाते हुए शहीद कर दिया गया । जिस इतवार को यह हादसा हुआ उसे सही मायने में ब्लैक सन्डे भी कहा जा सकता है । उसी दिन दिल्ली के कोने कोने से औए एन सी आर के कई शहरों से किताबों कि तलाश में हजारों नौजवान बच्चे बुजुर्ग पहुँच गए थे । इतना ही नहीं वहां किताबों कि दूकान लगाने वाले भी तो जमा थे । कहते हैं कि यह बाज़ार पिछले ४५ साल से गैर कानूनी तरीके से लगाया जा रहा था । इससे तो यह पता चलता है कि सरकारी अमले को एक्शन के सही वक्त कि तलाश करने में ४५ साल लगते हैं । इस बाज़ार कि शहादत तब हुई जब ये समूचे हिन्दुस्तान औए अस पास के मुल्कों में मशहूर हो गया । इस बाज़ार में सस्ते से सस्ते दाम पर बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी वे किताबे मिल जाती थी जो दिल्ली में कहीं नहीं मिलती थी । ये बाज़ार उन नौजवानों के लिए सचमुच गरीब नवाज़ था जो बड़ी रकम खर्च करके महँगी किताबें खरीद नहीं सकते थे । इस बाज़ार में विदेशी किताबें और रिसाले भी बिकते थे । इतना ही नहीं हर जुबा कि किताबेंरिसाले ग्रन्थ खरीदते लोग यहाँ दिखाई देते थे । इल्म के इस खजाने के समंदर में अपनी ज़रूरत कि तलाश करते यहाँ देश विदेश के लोग दिखाई देते थे । अब ये नज़ारा देखने को नहीं मिलेगा मगर बुक लवर्स के दर्द का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता । क्या इस शहादत पर कोई गांधीगिरी नहीं करेगा और दिल्ली नगर निगम और दिल्ली पुलिस को गुलाब नहीं भेजेगा ।

किराये के मकान, लीडर परेशान

देश की कमार्शैअल राजधानी मुबई में इन दिनों एक नया तूफ़ान उठा हुआ है। माजरा बेहद आसान है। मुद्दा है - किराये के मकान , लीडर परेशान । म्हाडा -महाराष्ट्र सरकार का एक हाऊसिंग बोर्ड है। इसने मुबई और आसपास ऐसे पचास हज़ार फ्लैट बनाने का फ़ैसला किया है जो बहुमंजिले होंगे और गरीबों को किराये पर दिए जायेंगे । योजना तो बहुत अच्छी है मगर इस पर राजनीति करने वाले लीडर अब खुल कर खेल रहे हैं । ऐसे नेता कोहराम मचा रहे हैं कि ये फ्लैट केवल मराठी लोगों को किराये पर मिलने चाहियें । ऐसे नेता मराठी , गैर मराठी के नाम पर लोगों को बाँट रहे हैं । वह बाँट रहे हैं क्योंकि वह गरीब नहीं हैं । गरीबों के दुःख दर्द नहीं जानते। वह उनका दर्द तो बाँट नहीं सकते लेकिन नफरत फैलाने से उन्हें कोई रोक नहीं सकता ।

काला चश्मा कामयाब

देश के एक दक्षिणी प्रान्त के वरिष्ठ राजनेता ने अपना छियासिवान जन्म दिन चेन्नई में मनाया। उनका काला चश्मा खूब जलवे दिखाता है। यह नेता अपने काले चश्मे की आड़ में जब अपनी राजनीतिक चालें चलता है तो उनकी असली आँखों से उनके सही मकसद का पता नहीं चलता। यह काला चश्मा कई दशक से उनकी ढाल बना हुआ है। इसी ढाल का सहारा लेकर वह नेता अपने तीर फेंकता है जो शायद कही निशाने से नहीं चूकते । इसी काले चश्मे को अपनी हिम्मत की ताकत मान कर किसी भी छोटी बड़ी बात को वह अपना धारदार मुद्दा बना लेता है और भूख हड़ताल पर बैठने से भी गुरेज़ नही करता। यह बात अलग है , वह सत्याग्रह भले ही चंद घंटे तक ही चले। जब यह नेता ज़रा सा नाराज़ हो कर रूठ जाता है तो अस्पताल में जा कर भरती हो जाता है और दिल्ली से बड़े बड़े नेता सुलह सफाई के लिए दस्तक देने पहुँच जाते हैं। इस नेता को शायद अपने काले चश्मे के शुभ होने का भरोसा है जिस वजह से इस नेता को अपने पूरे परिवार को राजनीतिक तौर पर स्थापित करने में कामयाबी मिली है। ऐसे नेता के जन्म दिन पर रौनक होने के बावजूद इस नेता को अम्मा के आने की आशंका सताती रहती है। मगर इस काले चश्मे वाले व्हील चेयर पर से सरकार चलाने वाले नेता को भरोसा है ,उनका तमिल मुद्दा हमेशा उन्हें कामयाबी दिलाता रहेगा, इस से भी ज़्यादा भरोसा उन्हें अपने काले चश्मे पर है क्योंकि काले रंग पर भरोसा है क्योंकि यह सबसे ज़यादा नज़र से बचाता है फ़िर अम्मा से क्या डरना, काला चश्मा कामयाब, नेता जी को रखना याद।

बाल काटे दुनिया देखे

बाल काटे दुनिया देखे, ऐसे ऐक्टर पे मरियो । मैं फ्री में बाल कत्त्वाऊंगा तुम देखते रहियो। दिल्ली में न जाने कितने उत्साही लोगों ने खुलेआम बाल कटवाए और हज्जाम बने जाने माने ऐक्टर आमिर खान । आमिर खान के हाथ में कैंची और बाल काटने की मशीन क्या अजब नज़ारा रहा होगा। आमिर खान के हाथों बाल कटवाने वालों का जमावडा और बाल कटवाने की बेकरारी । लोगों को इस बात की कोई गारंटी नहीं थी , हज्जाम के पास ऐसा काम करने का एक्स्पेरिंस है या नहीं। अगर देखा जाए तो लोग बाल कटवाने के लिए मशहूर सैलून और जाने माने हेयरड्रेसर के पास जाना पसंद करते हैं क्योंकि किसी आदमी की पहचान और शक्सियत तथा चेहरा इस पर मयस्सर होता है कि किस प्रकार के बाल काटे गए हैं । उत्साही लोग इस बात की फ़िक्र किए बगैर बाल कटवाने के लिए आमिर खान के पास पहुंचे । सभी चाहते थे कि लोग आमिर खान के हाथों अपने बाल की aआहुति


दे दें । ये अजब दीवानगी है , कभी लोग एक्टरों के बाल देख कर सफाचट मैदान बना देते हैं अपने सर को और उनके सर पर जब रौशनी पड़ती है तो रिफ्लेक्ट होकर लौट आती है । कभी लोग सर गंजा करवा अपने सर में लाइनें खिचवा लेते हैं और उन्हें हैड ला इन का नाम देते हैं। कई लोग इसे अपने सर पर मांग खींचे जाने का आलम बताते हैं। कभी लोगों ने जॉन अब्राहम की तरह लंबे लंबे बाल रखे तो कभी लोगों ने छोटे बाल रख के पीछे चोटी रखनी शुरू कर दी । कभी तरह तरह के किस्म किस्म के बाल बनवाने की धुन लड़कियों को सवार होती थी और वह अपने सिरों पर कई तरह के घोंसले, पहाड़ ,झरने और धारदार हथियार बनाया करती थीं मगर आज ऐसा जूनून लड़कों में भी साफ़ दिखाई देता है। आख़िर क्यों न हो हम ने लड़की, लड़के में कोई फर्क न होने का संदेश इतना बुलंद कर दिया है लिहाजा लड़के अब लड़कियों से ज़यादा ब्यूटी पर्लोर के भीतर जाते हैं जबकि पहले सज धज कर निकलने वाली लड़कियों के इंतज़ार में ब्यूटी पर्लोर के सामने जमावडा लगाये रखते थे। वह दिन दूर नहीं जब लड़के अपने जीन तो पहनेंगे और उनके साथ ब्लाउज भी डालने लगेंगे क्योंकि उन्होंने अपने कान, नाक, और पलकों के ऊपर सोने, चांदी और डायमंड की बालियाँ डालनी तो शुरू कर दी हैं। बहरहाल हम बात कर रहे थे मुफ्त में बाल काटने वाले बार्बर यानि आमिर खान की। आमिर न केवल ख़ुद को फिट रखने के लिए सब
कुछ करते हैं बल्कि उस फ़िल्म को चरचा में रखने के लिए भी हर तरह का नाटक करते हैं। इससे आमिर का अपनी फ़िल्म को मुल्क के हरेक कोने और हरेक आदमी तक तक पहुचने के इरादे का पता चलता है।

सुट्टा बंद

जी हाँ, अब सरेआम आप धुएँ के छल्ले नहीं देख पाएंगे क्योंकि देश की सबसे बड़ी सरकार यानि नई दिल्ली की सरकार ने सुट्टा बंद करने का पुख्ता प्रबंध किया है । इतना ही नहीं इस काम में मुल्क की बड़ी से बड़ी अदालत ने भी रोक लगाना वाजिब नहीं समझा । अब केन्द्र सरकार ने सिगरेट आदि के पैकेज पर डरावने चित्रों से चेतावनी देना शुरू कर दिया है। सचमुच अब सुट्टा बंद का जज्बा सर चढ़ कर बोलेगा । सुट्टा मारने वालों को अगर यह मौका न मिले तो उनकी बेकरारी ऐसे बढ़ जाती है जैसे समंदर में ज्वार आता है। इस बेकरारी की झलक पाकिस्तानी बैंड के एक गाने --सुट्टा न मिला में साफ़ झलकती है। जब सुट्टा मिल जाता है तो फिर उसका आखिरी कश तक मज़ा लेते हैं लोग भले ही जलती सिगरेट में उनकी उँगलियों की खाल न जल जाए । जब स्मोकिंग से अन्दर के शरीर को घुन लग जाता है तो उगलियों पर आने वाली आंच की कौन परवाह करेगा । स्मोकिंग की भी ऐसी लत है कि छुडाये नहीं छूटती ।कुछ लोग तो इसे स्त्तियोरिय्द कीतरह मानते हैं और रात भर जागने और फिर अपने काम में कन्संत्रत करने के लिए सिगरेट का सहारा लेते हैं। इतना ही नहीं सरकारी दफ्तरों और पुब्लिक डीलिंग की जगह पर अब काम के बन्दे के साथ दोस्ती करना और अपना काम निकालना भी टेढी खीर हो जाएगा क्योंकि सिगरेट ऑफर करने से एक तो इन्फोर्मल रिलेशन बनने लगते हैं और दूसरे दोस्ती की बुनियाद भी पड़ने लगती है। और सिगरेट पीने वाले एक ही सिगरेट से बदल बदल कर कश लेते हैं। आख़िर इतनी इंसानियत और भाईचारे पर ठेस नहीं लगेगी , क्या सुट्टा बंद हो जाने से । अब तक लोग स्मोकिंग को मरदाना शौक मानते रहे हैं और लोग अपनी ऐंठ दिखाने के लिए भी कश लगाते हैं। इतना ही नहीं अब तो लड़कियां भी लड़कों जैसा दम ख़म दिखाने के लिए सुट्टा लगा लेती हैं। ऐसे नज़ारे तो कालिजों और उनिवेर्सितियों में अक्सर दिखाई देते है। बहरहाल पब्लिक प्लेसिस पर सुट्टा बंद होने से कुछ हद तक सिगरेट में सुल्फा दूसरी नशीली दवाएं लेने वालों पर तो कुछ पाबंदी लागू होगी। सुट्टा बंद करने के फायदे उन लोगों के लिए हैं जो स्मोकिंग नहीं करते , ये लोग पेस्सिव स्मोकिंग के शिकार हो कर बीमारी के शिकार होते हैं। केन्द्र सरकार ने क़ानून तो अच्छा बनाया है। मगर इसे सख्ती से लागू करने से ही नतीजे मिलेंगे । जहाँ ज़रूरी है वहां स्मोकिंग ज़ोन भी बनने चाहिंए और कानून के नियमों कोनज़रंदाज़ करने वाले लोगों से अगर २०० रुपये जुर्माना मौके पर वसूल किया जाए तो बेहतर नतीजे मिल सकते हैं । क़ानून बेहतर है क्योंकि इसके सिवा कोई चारा नहीं था। इंसानों को कैंसर और फेफड़ों
की बीमारी से बचाने का क़ानून इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि सरकार अपने रेवेन्यु को देखते हुए सिगरेट बनाने पर तो पाबन्दी लगे नहीं सकती इससे होने वाले नुक्सान को तो रोक सकती है।

हरा चश्मा नहीं मिला

हरा चश्मा नहीं मिला । जी हाँ इस दिल्ली शहर में हरा चश्मा नहीं मिला, यह दास्ताँ इसी शहर की है। एक बच्चे ने अपने पिताजी से अपने लिए एक हरा चश्मा दिलवाने के लिए कहा। पिताजी ने अपने आस पास सभी चश्मे और गोगल की दुकानों पर जा कर ऐसा चश्मा खरीदने की कोशिश की मगर उसे नहीमिला। इस पर पिता ने बेटे से लाल या फिर काला चश्मा लेने को कहा मगर बच्चे ने तो जिद्द पकड़ ली। अब वह आदमी अपनी कार चला कर पूरी दिल्ली के चश्मे की दुकानों और स्टोर पर गया लेकिन उसे कहीं भी ऐसा चश्मा नहीं मिला। आख़िर वह हार कर निराश और हताश हो गया। उसने दूकानदार से पूछा , जब हम छोटे होते थे तो आसानी से हरा चश्मा मिल जाता था लेकिन अब ऐसा क्या हो गया जो इस का अकाल पड़ गया है। इस पर दूकानदार ने जवाब दिया, अब हम दूकान पर हरा चश्मा रखते ही नहीं क्योंकि न तो ये बिकते है, न कोई इस की मांग करता है और इस की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि अब हरयाली ही इतनी ज़यादा है कि हरा चश्मा बेकार लगता है। जब से दिल्ली में शीलाजी की सरकार बनी है हरियाली बेतहाशा बढती गई है और अब इतनी हरियाली है कि हरे चश्मे बिकने बंद हो गए है । दिल्ली पूरे संसार में सब से अधिक हरी भरी राजधानी है॥ यह बात तो पिताजी को समझ आ गयी मगर उसे यह दुःख हो रहा था कि वह अपने बच्चे की डिमांड पूरी नहीं कर सका।

Vaise Kutte Vafadar Hote Hai----Hindi in Roman Script

Kutte janvaron mein sabse zayada vafadar mane gaye hai---insanon ke liye. Ise dekhte hue ek bank ne kutte ko hi khatadhariyon ki jama rakam ki vafadari karte hue dikhaya hai. Isi tarah ek mobile company ne bhi vafadari dikhane ke liye kutte ki tasveer chuni hai. Yeh bhi sach hai ki kuchh log kutton ko apni family ka sadasy aur is se bhi zayada mante hain. Tabhi to kutton ko apne makhmali sofon aur bistron par saath aaram karne dete hain. Apni airconditioned gadiyon mein sair karwate hain. Aise kutton ke alava street dog yani awara kutton ki dastan alag hi hai. Unke saath jab koi badsalooki karta hai to animal lovers n g o apni awaz buland karte hain. Aisi badsalooki karne walon ki zindgai dushvar kar dete hain--ye n g o. Aise kai mamlon se log pareshan hain aue adalton tak pahunche. Aise mamlon se ados pados ke rishte bigad raye hain.
Awara kutton ki awargi aur kutton ke prati insan ki diwangi se kai log khafa bhi hain. Kabhi kabhi aise kutte insanon ko kaat lete hain aur phir kutton ki dharpakd ki jaati hai. Baharhal aisi ghatnaon ke beech MCD yani dilli nagar nigam ne kutton ki ginati karne ka elan kiya hai. Kutte n to ek jagah par rahte hai aur n hi unhen shakl se pahchana ja sakta hai. Lekin phir bhi kutton ki ginati cheetiyon ki ginti ki tarah namumkin to nahin. Nagr nigam ne kutton ko pakd kar unki nasbandi karke ki bhi thaani hai. Aisa to hota rahta hai magar phir bhi kutton ki tadad badhti jati hai. Nasbandi ke baad tadaa badhna ajeed lagta hai. Isse yeh pata chalta hai ki kutton ki nasbandi laparwahi se ki jati hai. Jab insanon ke asptal mein laparvahi hoti rahti hai to kutton ke baare mein laparwahi hone par koi awaz shayad n uthai ja saki. Rajdhani dilli mein bahar se aane vale kutton ko ticket ya passport ki zaroorat nahin hoti. Rajdhani mein desh ke doosre pranton se aane valon ko rokne ki awaz uth sakti hai. Ho sakta hai , kisi n kisi upay se unka aana ruk bhi jaaye lekin yeh karvai manushyon tak hi seemit rahi hai. Janvaron ke baare mein jinmein kutte bhi shamil hai un par koi pabandi nahin lagai ja sakti.
Kutte vafadar hote hain,kyonki ve jis basti ya ilake mein rahte hain kewal vahin bhonkte hain aur vahan kisi gair ke aa jane par bhonkte hue apni basti se bahar kar dete hain aur apni basti ki had nahin langhte. Ye kutte akhir padosi desh ke un insanon se to behtar hain jo hamare khilaf apne mulk mein to bhonkte hi hain, had paar kar ke hamare desh mein aakar bhi bhonkte hain aur is mulk ke logon aur vayavastha ko katte bhi hain.

Biwi Yani Big Boss......Hindi in Roman Script...21.05.09

Biwi Yani Big Boss

Desh ki aala adalat ke ek manniya justice ki rai pa agar gaur karen to biwi ek big boss hai,ek commander hai, ek aisa cement aur chipkau Kwick Fix hai jo grahasth ki gari ko tikau banati hai, grahasth ki mahima aur garima ko duniya ki nazaron mein smridh,swasth,safal, sharsh banati hai. Aap agar apne ghareloo jivan se sangharsh, takrav, var-prativar talna chahte hai to biwi ko ji han apni biwi ko apne big boss aur commander se badhkar manen tabhi to aap ka jivan sukhad ban sakta hai. Biwi ki baat maan lene mein samajhdari hai. Aap agar apni samajhdari ka apni akl ko girvi rakh kar istemal karenge to takrar, bikhrav,vilap,talaq se bach jaenge aur aap ko vakilon aur adalaton ke chakkar nahin katne honge. Itna hi nahin agr aap apni biwi ko sartaj maan lenge to aap ke naam n to koi bhi tohmat aaegi aur n hi koi musibat. Aap ke bachon ko bhi tootan ka dansh nahi jhelna padega.

Aap ke jivan ki safalta ,amn , chain,santosh ka bas ek moolmantra hai---Biwi sharnam gachhami,toot ki aashaka mit jani. Aakhir ise manne mein kya burai hai. Kai log kya kai desh bhi apne sukhmay bhavishya ke liye qurbani dete hain. Kai desh aman-chain ke liye apni sena ka samarpan karte hain,kai desh apni satta surakshit rakhne ke liye aatakvadiyon ke aage jhuk jaate hain. Aaap bhi agar apne parivar ke sukh aur aman ke liye apni biwi ko apna sab kuch, apna sarvatra maan lenge to koi aasman girne vala nahin hain.

Aapko to kewal itna hi kahna hai-Jo kuch hai sab tera,mera sab kuch tera. Iske baad yadi aap chahen to yeh bhi kah sakte hain-tera tuch ko arpit,kya laage mera. Bas aap apni poori tankhvah biwi ke haath mein dekar poore mahine uski ichhaon ka paalan karen to poore jivan mein kabhi koi musibat nahin aayegi. Iske baad aapko koi nag, nagina nahin daalna hoga kyonki aapne biwi ko sabse bada nagina aur use sabse behtar hasina maan liya hai. aap kya cheez hain supreme court ke judge bhi biwi ko apna big boss maante hain. Kai log to zyada samajhdar hote hain aur vah apni sagai ke din se hi apni honevali patni ke prabhamandal ke age hathiyar daal dete hain aur unki shhadi hone tak aur uske baad ki bhi zindagi pursakun ho jaati hai.

Biwi Yani Big Boss---21.05.09 Hindi in roman script

Biwi Yani Big Boss

The Art of teasing, New Bapus and Mahatmas and Cricketers Batt(l)ing to score seats

THE ART OF TEASING-SAT PAL


Yes, Teasing is an art which require no specific training, education and skill development. It is a spontaneous natural skill. Teasing has been in existence since ages though there has been no record of any Teasing Championship or competition in the world. Teasing has a universal appeal and world-wide effect. There are enormous forms of teaching e.g. spoken, visual, written and body language etc. It is done for amusement, harassment and incitement. Sometimes its international and a number of times it is just plain coincidence.

In recent times, we have been witnessing teasing between two adversaries be it nearby or far away. Well-known personalities have been naming their pets in a particular manner which is hurting know adversaries. US President Mr. George W. Bush has named his pet cat “India” which reflects his approach towards the largest democracy in the world. His cat might be very dear to him and he might have been too affectionate to the cat, it has still hurt millions of Indians. This art has also been nurtured in the tinsel world. If we peep into Bollywood, we would come across a number of interesting incidents. Adversity between Aamir Khan and Shahrukh Khan is not a discreet affair. Aamir has named his pet dog “Shahrukh”. This incident drew attention of cine lovers. This teasing is based on the principle of hatred. It is understood that Aamir and Shahrukh are now coming closer to each other and trying to forget the past which created a deep gulf between them.

One cannot forget names of two pet dogs of a Mumbai Politician Raj Thakre. His dogs have been named “James” and “Bond”. These names also shared headlines when linguistic Chavanism of Raj was at peak and he used to speak only Marathi. Eyebrows were raised saying that why Raj has given English names to his pet dogs which have become an integral part of his family.

Teasing is visible everywhere be it school, office, family etc. Cartoons have also been recognized as an effective and forceful mode of teasing. The Art of Teasing is nurtured gradually. The children have been frequently giving different names to their fellows. Such names in any case are reflecting their hidden and exposed qualities. Bosses in the offices are also being rewarded with the teasing names. Sometimes these names are circulated privately, discreetly by the word of month and in many cases the names become so popular and the people even forget actual names of the bosses. These teasing names have capacity of fun generation. It has also been seen that such teasing sometimes results in verbal fights. Anyhow the contribution of a professional teaser could not be undermined as it goes a long way in enriching the dictionary of a particular language.

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NEW BAPUS AND MAHATMAS- SAT PAL


Ours is a land of wonders and new happenings. One may frequently come across an interesting instance which is bound to spread like a jungle fire resulting in overcrowding and stampede. It may be recalled that a large number of casualties take place due to stampedes at religious places where people throng due to their sheer beliefs, superstitions, blind faiths and misconceptions. There has been no let up in such incidents, in fact, these have become a regular feature, thereby engulfing the commoners and those people who are hand to mouth or happen to be at religious places with an intention to fill their bowls and overcome their hunger with alms and donations. This has become an inseparable and integral feature of our great country which is known for her liberal attitude in feasting the underprivileged and hungry persons.

Of late, our country has earned a unique distinction of gracefully accepting new emerging Bapus, Mahatmas etc. ushering in an era of confusion, conflict and chaos. We all Indians are used to regard Mahatma Gandhi as a revered and fatherly figure, in fact, everyone take him in high esteem because of his untarnished image and his extraordinary title ‘Father of Nation’. The greatest personality of modern era Mahatma Gandhi has no personal agenda and commercial intention whereas New Age Bapus and Mahatmas have become self-proclaimed Gods and have been preaching different values and morals with different approach. They treat herds of people as their committed and loyal soldiers and not followers. It looks as if they have fine tuned their skill as sheep grazers. It is also surprising that they quite often organize large congregations travel in air-conditioned luxury vehicles, fly in their own choppers and spend quality time even more comfortably than the royals. Their discourses are somewhat confusing and contrary to each other. One does not know where it will land all of us.

The Bapus, Mahatmas, Gods, Acharyas, Mahamandleshwars have captured satellite channels with their money power. Apart from this they have been commercializing their so called humble services such as items of daily needs, common medicines claiming to be real herbal, soaps and shampoos, standardized offerings and pooja items. Their ventures are no less than millionaire’s commercial joints. They sell cassettes, videos and DVDs to forcefully disseminate their utterings. It is a known fact that certain Mahatmas are in possession of their own advanced production houses. The so called Gods have also been holding free ‘langars’ and offering priced packed food packets. They have been levying entry fee for discourses resulting in collection of huge amount.

These Bapus, Mahatmas and Maharajas have palatial bungalows to enjoy. We still call them Bapus and Mahatmas and forget the very fact that they have been causing an insult to our real Mahatma, the father of nation who used to live and die for Daridranarayans with minimum clothes on his frail body.

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Cricketers Batt(l)ing to score seats – SAT PAL

Ours is a vibrant democracy. Over the years, we have noticed a notable and drastic change in our election scenario and related moral, ethical and traditional values. Being a country which offers adult franchise to all and equal opportunities to unite, fight look forward and sink and swim as per one’s evident and veiled wishes. We have also seen strange bedfellows in this so called pious game of election and politics. As we have not been forcefully raising voice against such an inflammatory virus, in other words, we have been nurturing such virus to allow it to grow and decay our democratic structure. Our democratic values have survived and flourished because of Almighty’s grace though we have not spared any stone unturned to malign it to fulfil our immediate ambitions, lust of power and what not.

Most of the political parties are today fishing in so called clean waters to catch prominent cricketers to bring them to their fold and make them ready to fight elections in this fast changing political atmosphere. There is nothing wrong in exhorting cricketers to the political arena since criminals & history sheeters with notorious record and muscle power have been allowed to contest elections and hold public offices. Cricketers are a much better choice to be part of elections as they are more disciplined, dedicated, devoted and dutiful because of their true fighting spirit and sportsmanship. We have no right to deny their rightful place in our democratic process as policy makers. They have all the right to shine and perform in a glamorous political world other than their sports world, which is also glamorous. Even famous personalities from the tinsel world have proved their mettle in the election sphere and have, in fact, ruled for the decades by allowing their kith and kin to be groomed in a most pleasant manner. They also conceived and strengthened their parties as their personal property to become regional straps.

One must expect from the cricketers who are joining the so-called clean ganges of politics that they would perform well and strict to their principle of truth and honesty, as expected from them. They wear white dress, symbol of truth and honesty, while playing cricket, which has no parallel as far as the popularity is concerned.

The cricketers being lured in the politics world definitely try to increase seat tally of their party by their technique of hitting fours & sixes with a political twist. They are not supposed to bat but to take on a battle to enhance chances of own and their party. Their popularity would also help them in their new venture.

Let us analyse the present state of affairs of attracting cricketers to the game of politics, which is bound to offer unexpected ups and down being game of a lot of uncertainties like cricket. A political party, which is trying to wrest power at centre, has announced tickets for Chetan Chauhan, Kirti Azad and N. S. Siddu. They are not new to this battlefield. A party, which is heading the ruling alliance at centre, has also offered ticket to Madan Lal and is in process of fielding a former captain Mohd. Azarhruddin, of course both of them are new in this arena. Another party, which is aspiring to become a national party, has fielded Chetan Sarma, bowler of yesteryears who exhibited his Calibre by scoring a hat trick. Even an all rounder and a former captain Kapil Dev had also been in news in past. He declined a number of offers to join the political field. It is also on record that a former captain Nawab Pataudi also tried his luck earlier to enter lok Sabha but his ambition remained unfulfilled with a sour taste of defeat.

Let us watch and enjoy this most entertaining, exciting and awful dance of democracy and sincerely wish a good luck to all those cricketers who are harbouring political ambitions.

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