शहर ए दिल्ली , पुराना नहीं होता

शहर-ए-दिल्ली, पुराना नहीं होता
विशेष लेख
-सतपाल *
दिल्ली जो एक शहर है, हर शक्स की पसंद
चर्चे इस शहर के हमेशा रहे बुलन्द।
किसी भी दौर में यह वीराना नहीं होता
शहर-ए-दिल्ली, कभी पुराना नही होता।

आज चर्चा है दिल्ली के सौ साल पूरे होने की मगर तथ्य पर गौर करें तो पता चलेगा कि यह सत्य नहीं हैं। दिल्ली का इतिहास कई हजार साल पुराना है। कहते है कि पांडवों की दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ था। इस बीच का कई सैकडों वर्ष का विवरण गुमनाम है मगर, सात बार उजड़ने और बसने की कहानी आज भी लोगों को याद है। इन सात शहरों के नाम और खंडहर तो अपने काल का हाल चाल सुना रहे हैं। दिल्ली हमेशा से देश की राजधानी रही । हर साम्राज्य ने दिल्ली को देश का दिल समझकर इसे राजधानी बनाना पसंद किया। मुगल साम्राज्य भी अपनी राजधानी आगरा और फतेहपुर सीकरी से लेकर दिल्ली आया और ख्वाबों के हसीन शहर शाहजहांनाबाद की तामीर कराई। यमुना नदी के किनारे बसा शहर समूचे संसार में मशहूर हुआ और कई विदेशी राजा इससे ईष्र्या करने लगे। अंग्रेजों को भी यहां के ईमानदार और मेहनती लोग और यहां का भूगोल और हरा-भरा इलाका पसंद आया और उन्होंने 1911 में अपने दरबार में अपने इण्डिया की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाने की घोषणा कर दी। उन्होंने यह घोषणा तब के तमाम राजा, महाराजाओं, नवाबों और बादशाहों की उपस्थिति में की ताकि हरेक आम और खास को इसकी जानकारी मिल जाए और राजधानी के इस बदलाव का संदेश देश के कोने-कोने में पहुंच जाए। इस तरह यह सौ साल फिर से दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान करने से संबंधित है। मुगलों के कमजोर हो जाने और ईस्ट इण्डिया कम्पनी की राजधानी के रूप में कलकत्ता का महत्व बढ़ जाने के बाद अंग्रेजों ने यह जरूरी समझा कि देश की पुरातन, सनातन राजधानी यानि ऐतिहासिक शहर दिल्ली को राजधानी बनाया जाए ताकि वह एक ऐसे शहर से समूचे भारत पर लम्बे से लम्बे समय तक राज कर सकें, जहां से मुगल सल्तनत का हुक्म देश के कोने-कोने तक सम्मान और गर्व के साथ सुना जाता था।
कुछ लोग इसे नई दिल्ली के सौ साल होने का दावा कर रहे है। गौर किया जाए तो, पता चलेगा कि यह भी सत्य नहीं है। न तो 1911 में नई दिल्ली की नींव पड़ी और न ही इस साल नई दिल्ली का उद्घाटन किया गया। नई दिल्ली का उद्घाटन तो 1931 में हुआ जिसके बाद दिल्ली एक नगर से महानगर बनना शुरू हो गया।
यह सच है कि आज ज्यादातर दिल्ली का भाग नया है मगर जो शहर कभी दीवारों के बीच सटा हुआ था और मिली-जुली तहजीब का मरकज माना जाता था वह भी तो नया ही महसूस होता है, क्योंकि वहां का रहन-सहन पूरी तरह बदला तो नहीं मगर आधुनिकता के साथ घी और शक्कर की तरह मिल कर और भी समृद्ध हो गया है।
अंग्रेजों ने जब राजधानी दिल्ली बनाने की घोषणा की तो उन्होंने सिविल लाइन्स में राजधानी के लिए जरूरी इमारतें बनानी शुरू की और कश्मीरी गेट को मुख्य बाजार और रिज की दहलीज के चारों ओर सत्ता के गलियारे बनाने शुरू किए। लेकिन जब उन्हें यमुना जो कभी बारहमासी नदी हुआ करती थी, उसका रौद्र रूप दिखाई दिया तो वह भयभीत हो गए और इस इलाके को निचला क्षेत्र मानकर एक उंचे स्थान पर राजधानी बनाने की तलाश में निकल पड़े। मगर, दिल्ली की सबसे पुरानी चर्च कश्मीरी गेट और चांदनी चौक में अब भी विद्यमान हैं और किसी लिहाज से पुरानी नहीं लगती। इसी तरह पुराना सचिवालय तो अंग्रेजों की पहली संसद थी और इसी के सभागार में दिल्ली यूनिवर्सिटी की पहली कन्वोकेशन हुई थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी का वी0सी0 ऑफिस कभी वायसरॉय निवास था। कहां बदला है ये सब कुछ। पहले से कहीं ज्यादा रौनक और ताजगी है वहां।
अंग्रेजों ने जब नई दिल्ली का निर्माण शुरू किया तो न जाने कितनी इमारतें बनाई गई। लुटियन के नक्शे के हिसाब से खुला-खुला, हरा-भरा नया शहर यानी नई दिल्ली सामने आई। इसकी हर इमारत ऐतिहासिक है मगर इस्तेमाल की दृष्टि से नई भी है और सुविधा सम्पन्न भी। क्या नई दिल्ली की शान पुरानी हुई है? नहीं, कभी नहीं हो सकती। एक समय आया जब अंग्रेजों का बनाया कनॉट प्लेस व्यापार की दृष्टि से महत्व खोने लगा मगर जब मेट्रो का जादू चला तो यहां की रौनक लौट आई और व्यापारी भी फिर प्रसन्न होने लगे। यह साबित करता है कि दिल्ली कभी न तो बूढ़ी होगी और न ही पुरानी।
अगर हम तब और अब की ट्रांसपोर्ट की चर्चा करें तो आप महसूस करेंगे कि अंग्रेजों के जमाने के ट्रांसपोर्ट के छोड़े गए निशान पर आज हमारी पब्लिक ट्रांसपोर्ट दौड़ रही है। अंग्रेजों ने 1903 में चांदनी चौक से ट्राम का सफर शुरू किया था। यह ट्राम 1963 तक चली और इसका किराया एक टका यानी आधा आना और एक आना हुआ करता था। आज उसी स्थान के नीचे चांदनी चौक, चावड़ी बाजार और सब्जी मण्डी, बर्फखाने में भूमिगत और एलिवेटिड मेट्रो दौड़ रही है। कभी अंग्रेजों ने रायसीना हिल्स तक निर्माण के लिए पत्थर पहुंचाने के मकसद से रेल लाइन बिछाई थी वहां जमीन के नीचे आज मेट्रो की दो लाइनें सेंट्रल सेक्रेट्रियट स्टेशन से निकल रही इतना ही नहीं अंग्रेजों ने 1911 में अपने दरबार तक जाने के लिए एक रेल लाइन बिछाई थी जो आजाद पुर तक दौड़ती थी। उसी लाइन के एक स्टेशन तीस हजारी की जगह पर ही आज दिल्ली मेट्रो का तीस हजारी स्टेशन है।
आज भी लोग कुतुब मीनार को दिल्ली की पहचान मानते हैं। यह बात और है कि कई किताबों में बहाई टेम्पल यानी लोटस टेम्पल को दिल्ली की नई पहचान मानकर दिखाया जाता है मगर कुतुब मीनार अपनी बुलंदी की वजह से हर काल में नई पहचान ही बना रहेगा। कभी यहां तक जाने के लिए लोग पुरानी दिल्ली से तांगों पर जाया करते थे। हरियाली के बीचों बीच संकरी सड़क से होकर तांगे में बैठे मुसाफिरों को एअर कंडीशन सवारी का आनन्द मिलता था और आज वहां तक जाने के लिए एअर कंडीशन मेट्रो है। कह सकते है कि वही दिल्ली, वही कुतुब मीनार, वही एअर कंडीशन सफर तो कौन कहता है कि दिल्ली पुरानी हुई है। दिल्ली का दिल एक ऐसे नौजवान की तरह धड़कता है जिसे हर दम आगे बढ़ने की ललक होती है। इसी तरह दिल्ली हर पल, संवरती, निखरती, बदलती, सुधरती दिखाई देती है तो कौन कहेगा कि यह शहर पुराना होता है।
इस शहर के हर दम नया रहने के तो ये कुछ संकेत है। अगर हजारों साल की इस दिल्ली के इतिहास में नएपन का मजा लेना हो तो दिल से दिल्ली वाला बनना होगा।
दिल्ली नहीं है शहर, एक मिजाज का नाम है।
यह खास, इस कदर इसको सलाम है।
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*लेखक दिल्ली की मुख्यमंत्री के सूचना अधिकारी हैं।

हम होंगे छः करोड़

हम होंगे छः करोड़

एक अनुमान के अनुसार अगले पंद्रह वर्ष में दिल्ली पूरे संसार में सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर बन जायेगा. दिल्ली में आज हम एक करोड़ सत्तर लाख , २०२५ के बाद हमारी तादाद बढ़कर ६ करोड़ ४१ लाख हो जाएगी यानि लगभग १५ वर्ष में वन इन टू फोर के बराबर हो जाएँगे. यह कोई गर्व की उपलब्धि नहीं हालाँकि मानव संसाधन और जन शक्ति बढ़ेगी मगर संसाधन और सुविधाएँ तो दम तोड़ देंगी. ऐसे में हम सही मानव संसाधन और जन शक्ति की उम्मीद नहीं कर सकते .
आज सुविधाओं का नगर दिल्ली २०२५ में समस्याओं और चुनौतियों का शहर दिखाई देगा. यह शहर अजीब दिखाई देगा, दमघोंटू माहौल दिखाई देगा. दिलदार दिल्ली की ऐसी दर्दनाक दास्ताँ की कल्पना करते ही दिल दहलने लगता है .
आबादी तो बढ़ेगी ही क्योंकि दिल्ली मिनी इण्डिया है , राष्ट्रीय राजधानी है. यहाँ किसी के आकर बसने की कोई रोक टोक नहीं . दिल्ली है दिलदार, यह ऐसी धर्मशाला जिसका नहीं कोई द्वार . २०२५ में दिल्ली में प्रति किलो मीटर आबादी का घनत्व होगा ४४ हज़ार होगा .
साढ़े छः करोड़ आबादी का शहर क्या मुसीबतों का कहर नहीं कहलायेगा ? कोई भी अपने घर अतिथि नहीं बुलाएगा. आज जब रिहायशी इकाईओं की कमी है तो उस समय क्या होगा ? आसमान छूने वाली इमारतों में फ्लैट बनाने के बावजूद कमी तो रहेगी. अंडर ग्राउंड कालोनियां होंगी, यमुना पर हेंगिंग फ्लैट बनेंगे और तब छः छः गज के आशियाने वाले को खुशकिस्मत मन जायेगा. पीने के पानी की कीमत प्रति दस ग्राम तय होगी जैसे की आज सोने की कीमत होती है. आक्सीजन पाउच में मिलेगी, महंगे से महंगे दाम . और आखिर बिजली २० हज़ार मेगा वाट कहाँ से आयेगी. मेट्रो और बसें आखिर कितनी सवारियां ढोएंगी. सड़कों पर कार तो क्या साईकिल चलाने के लिए भी खुर्दबीन लेकर जगह तलाशनी होगी. आखिर कहाँ कहाँ से सब्जियां और अनाज की आपूर्ति होगी ? सडकों पर भीड़ तो होगी मगर भीड़ को लक्ष्य दिखाई नहीं देगा.
बच्चों के खेल के मैदान बीते दिनों की बात बन जायेंगे क्योंकि उन पर तो कब्ज़ा करने वाले टूट पड़ेंगे . इसके आलावा कितने स्कूल खोल पायेगी सरकार ?
दिल्ली जहाँ आकर्षक है आज, क्या कल आकर्षण रहित हो जाएगी ? क्या ऐसे में लोग दिल्ली छोड़ कर भागेंगे और प्राकृतिक संतुलन का नियम प्रभावी होगा ? ऐसा निश्चित नहीं लगता क्योंकि जो दिल्ली मैं आता है कभी लौटकर नहीं जाता . फर्क बस इतना है कि आज हरेक पार्टी दिल्ली में सत्ता में आना चाहती है और जब हम छः करोड़ होंगे तब कोई भी पार्टी चुनाव जीतना नहीं चाहेगी. चुनौतियों के हिमालय से टकराने से अच्छा समझा जायेगा कि चुनाव में खुद ही हार जाएँ .

जेल से अस्पताल

जेल से अस्पताल

नेता की तमन्ना है कि कुर्सी कभी न जाये. नेता की तमन्ना है कि जेल कभी न जाये. मगर आज की इस दोषारोपण प्रतियोगिता में जब नेता पिछड़ने लगता है तो उसे कुर्सी से हाथ धोना पड़ता है और जेल जा कर छोटी से छोटी कोठारी में सोना पड़ता है . राजनीति की चमचमाती जिंदगी और कुर्सी का नशा सभी नेताओं को अच्छा लगता है लेकिन जब वह ज़मानत पाने की अदालती कोशिश में हर जाते हैं तो हाथ मल कर पछताते हैं और सीधे जेल जाते हैं.
नेताओं की यह फितरत होती है की वे अपने ऊपर लगाये जा रहे आरोपों को जोर शोर से नकारते हैं और आरोप लगाने वालों को भी दागदार बताते हैं. नेता मानते हैं कि दागी या आरोपी होने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जब तक आरोप साबित नहीं होते तब तक वो पाक साफ होते ही हैं . नेताओं के पास आरोपों की झड़ी लगा देने की महारत होती है
आरोप और कुर्सी के बीच धरती और चाँद जसी दूरी साबित करना भी नेताओं के लिए ज़रूरी होता है. आरोपों से घिरे नेता कि यही कोशिश होती है कि सर्वस्व चला जाये मगर कुर्सी न जाये. जब कानून और आला कमान किनारा करने लगते हैं, आरोपी नेता मीडिया के जाल में फंसने लगते हैं तो उन्हें प्रतीत होने लगता है कि कुर्सी की टाँगें अब जवाब दे रहीं हैं तो नेता अपनी कुर्सी अपने पास रखने के लिए बेटों, पत्नी , भाई या फिर सगे संबधियों की तलाश शुरू कर दाता है. नेता जब अपने सीने पर कई टन का पत्थर बाँध इस्तीफा देने को तैयार हो जाता है तो पार्टी का अनुशासित सिपाही बन जाता है . इस तरह उसके जेल यात्रा के ग्रह सशक्त हो जाते हैं .
नेता जब जेल में जाता है जिसे उसने मॉडल जेल बनाकर अख़बारों की सुर्खियाँ हासिल की थीं तो वही जेल उसे काटने दौड़ती है . ऐसे में जेल में बंद नेता की तमन्ना होती है कि उसे अस्पताल में दाखिल कराया जाये. कम से कम अस्पताल में मनचाहे लोग आ कर मिल सकेंगे, बेहतरीन भोजन मिलेगा, ए सी कमरा होगा, आरोप लगाने वालों को चित्त करने का चिंतन होगा और सौन्दर्यबोध का अनुपम अवसर होगा. इसलिए तो जेल पहुंचते ही नेता अपना सीना पकड़ लेते हैं. सीना पकड़ते हैं और भय में दिखावे के आंसू और पसीना गिराते हैं . दबंग से दबंग और निडर नेता भी जेल के नाम पर कंपकपाते हैं और जेल का नाम सुनते ही अदालत में बेहोश हो जाते है. ऐसे नेताओं को जेल काटने से ज्यादा बीमार होकर अस्पताल में रहना अच्छा लगता है . यह तो नेता की कला पर निर्भर करता है कि वह कितनी जल्दी जेल से अस्पताल के लिए प्रस्थान करता है.

गांधीगिरी से अन्नागिरी से दादागिरी , अंग्रेजी में

FROM GANDHIGIRI TO ANNAGIRI TO DADAGIRI ------SAT PAL

A social activist Anna Hazare while highlighting the importance and relevance of his intention to get civil societys’ Jan Lok Pal Bill adopted by the Union Government attracted attention of the entire country including the countryside. Our country witnessed a euphoria which was unprecedented and somewhat indecent though a few persons dared to express this very disturbing fact in public. It displayed a distorted form of Gandhigiri. A vast sea of Gandhi caps and a mammoth crowd gathered at Ramlila Ground and the main squares of the State Capitals and other cities left no stone unturned in creating an undemocratic show, vandalism and hooliganism. This was no less than an anarchy that overpowered the highest democratic institutions. The agitation though named as a Gandhian Satyagrah turned out to be an adamant venture coupled with a feast of all horse’s wishes like demand to bring the moon down to the earth.
It may not be termed as an attempt to malign a saint like personality known as Anna Hazare but after each passing day it became clear that the movement was being hijacked by the so called kshatraps of the civil society who were otherwise sitting quite and even idle for years together. The Annagiri as demonstrated by the youth and other activists allowed herd of people to chant bhajans outside the residences of the Ministers and MPs , gherao their houses, block the major roads, creating traffic bottlenecks, breaking the traffic rules, driving two wheelers without putting helmets, organizing unplanned rallies, disturbing peace loving persons and the worst came when the agitators tried to gherao the PM residence and ventured unauthorized entry into Parliament complex and raised slogans in the highest pitch as to reach the deaf ears of the sky. All this received recognition as ANNAGIRI. The cap adorned by Anna was able to create the waves throughout the world. A few political parties were sympathetic to Anna’s initiative as it was drawing headlines in the newspapers and the periodicals apart from dominant coverage on all electronic channels.
Off late this Annagiri has been taking a new turn and it has started moving to the path of DADAGIRI. The lieutenants of Anna are making a forced entry in to the offices and putting pressure on the government servants to put their signatures on a pledge conceived by the ANNA team which states that the signees will not accept any bribe and not offer any bribe during their lifetime. Mere putting of signatures on the pledge is not going to ensure a clean and corruption free society as a bill, in what so ever form it may be, will not be able to overcome the mighty modus operandi of corruption which has taken deeper inroads into our system. The supporters of Anna entered the office of the Deputy Commissioner, North at Daryaganj to get signatures of the highest district level officer on that very pledge. They not only created a show which has no parallel in the history, but also disrupted the functioning in the office resulting in harassment to people present there in connection with their works. This sort of unusual move resulted in the Deputy Commissioner’s running away from his office in hurry and leaving the entire office in lurch. The similar attempt was made in the office of an SHO and the police personnel were forced to put their signature on that so-called pledge with an aim to put an end to the ill conceived and conspired empire of corruption which has taken abode in our blood as deadly diabetes weakening the very foundation and four walls of our economy which has been struggling hard to maintain its somewhat respectable place during ongoing worldwide slowdown. Anyhow, the recent acts of entering in to the offices and creating disturbances by coercing the employees to bow before the wishes of the so called reformists and obedient followers of the civil society can be termed as violation of certain sections of the Indian Penal Code i.e. Sections 186 and 353 which attracts penal action on creating disturbance in the functioning of the government officers and attempt to adopt violent means. This coercion by the agitators is, no doubt, DADAGIRI which is the next stage of the much talked Annagiri. One may agree or disagree with the comment made by a saffron clad social activist , arya samaji leader and former Education Minister in the state of Haryana in 1977, which brought embarrassment to him when his conversation with a Union Minister was leaked wherein this saffron activist raised a few queries on the ANNA’s agitation . But it looks now that his perception was somewhat justified. The saffron clad activist had stated that the Anna movement is marching as an uncontrolled elephant. The new phase of agitation launched by the supporters of Anna in Delhi, in fact, substantiates the doubts raised by the saffron clad Swami. However, it is not relevant here to state that the saffron activist has publicily sought apology from Anna team over his comment made during the peak of Anna movement.
The time has seen transformation of Gandhigiri to Annagiri and now Dadagiri. It is yet to be seen that what sort of the transformation is in the store. Anyhow, nobody will be able to undermine the role of Swamis, either saffron clad or white dressed, in creating political storms in the country. One Swami has been thrashing the big bosses in the Union Government into legal battles. A tea party hosted by him in 1999 resulted in the downfall of the then NDA government. Another swami as we all know him as a Yoga Guru has also started his second venture which may also redefine any such Dadagiri though his first venture proved to be a damn squib.
ये मज़हब वाले

हमारे देश में मुद्दा कोई भी हो , कैसा भी हो, वह सबके लिए खुला मैदान बन जाता है. ऐसा मैदान जिसमें कुछ भी खेलने की सबको आज़ादी यानि पूरी आज़ादी मिल जाती है . मुद्दे का मैदान एक हो सकता है उसमें आप कुश्ती के दांव पेच, उठा पटक, क्रिकेट के बाउंसर , छक्के , हाकी के कार्नर , पेनाल्टी शूट और न
न जाने क्या , क्या देख सकते हैं. इतना ही नहीं, मुद्दा एक हो भी तो उसमें से सैंकड़ों मुद्दों को खींच खींच कर निकाला जाता है. मुद्दा था महिला आरक्षण, इस मुद्दे की इस तरह चटनी बनाई गई कि आरक्षण के भीतर आरक्षण, उसकी हर सांस में आरक्षण यानि इस मुद्दे को इतना उलझाया गया कि अब इस मुद्दे को सुलझाने के लिए शायद ही किसी में दमखम बचा हो. लगता है, यह मुद्दा भी कश्मीर जैसा जटिल बन गया है. बस मुद्दा होना चाहिए , कूदने वालों की कोई कमी नहीं होती और मुद्दों को गर्माने वालों की भी कमी नहीं होती, भले ही देश कुरुक्षेत्र बनने लगे या फिर कर्फ्यु क्षेत्र . कूदने वालों में संगठनों की लम्बी कतार लग जाती है और ये मज़हब वाले भी कहाँ संकोच करते हैं.
अब बात करते हैं केरल की जहाँ की सरकार कुछ दिन से यह मंथन कर रही है कि बढती जनसँख्या पर काबू पाने के लिए कोई कारगर कदम उठाया जाये. इस प्रदेश को शुरू से ही प्रगतिशील माना जाता है. यहाँ का हर शख्स पढ़ा लिखा है. यहाँ के लोग नौकरी के लिए लेह लद्दाख से लेकर मिजोरम तक पहुँच जाते हैं. इतना ही नहीं यहाँ के निवासी दूर दूर के देशों में भी बसे हैं. इसी वजह से इस राज्य की अर्थव्यवस्था मज़बूत हुई है. सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ बड़ी तादाद में हिन्दू , मुस्लिम और इसाई रहते है. इस के बावजूद यहाँ साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते .

इस प्रगतिशील राज्य की सरकार ने एक ऐसा कानून बनाने का विचार किया कि जिस परिवार में तीसरे शिशु का जन्म होगा उसपर दस हज़ार का जुर्माना लगेगा और सरकारी कर्मचारी होने पर और भी दंड लगाया जा सकेगा इसका देश भर में स्वागत किया गया मगर मज़हब वालों ने ठान ली कि कूदना ज़रूरी है. अब खबर है कि केरल के सीरो मालाबार चर्च ने पांचवा शिशु होने पर दस हज़ार रुपये का फिक्स्ड डीपाजित गिफ्ट करने का फैसला किया है . आखिर ये मज़हब वाले क्या चाहते हैं ? क्या इन्हें बढती आबादी के खतरे दिखाई नहीं देते ? इस से पहले एक और मज़हब के लोगों ने जनसँख्या नियंत्रण का विरोध किया था . लगता है अब उन्हें सद्बुधि आ रही है मगर मज़हब वालों को भी सोचना चाहिए कि न तो हर गेंद पर छक्का लगाया जा सकता है और न ही हरेक शेर की मांद में घुसा जा सकता है. मज़हब को मज़हब रहने दो , मुद्दे तो आते जाते रहेंगे.

बापू का जन्म दिवस

आज हमारे राष्ट्र पिता की जयंती है । उन्होंने १४२ साल पहले गुजरात के पोरबंदर में जीवन की पहली सांस ली थी । तब से अब तक सार्वजानिक जीवन की गरिमा आसमान से गिर कर ज़मीन तक और रसातल तक पहुँच गयी है । अब राजनीति एक दूसरे के ऊपर कीचड फेंकने की प्रतियोगिता बनी हुई है। इस दौर में किसी का भी दामन साफ नहीं लगता भले ही कोई खुद कों बेदाग दिखाने की लाख कोशिश करे। कीचड इतना ज्यादा बिखरा है कि गंदगी दिल और दिमाग के कण कण में समाई है । बापू ने क्या कभी किसी के द्वारा लगाये गए आरोप का जवाब दिया था , क्या बापू ने कभी किसी पर लांछन लगाया था , क्या कभी किसी का दिल दुखाया था , क्या कभी किसी के ज़ख्म पर नमक डाला था ? उत्तर है नहीं , नहीं, नहीं, मगर आज बापू की समाधि पर फूल समर्पित करने वाले सभी नेता बापू के आदर्शों की बलि देने पर आमादा हैं और वे कीचड के थोक व्यापारी बने हुए हैं, ऐसे में बापू कों इस तरह याद करना केवल दिखावा हैं।

अन्न ---शन अंग्रेजी में


:
AN ANN-SHUN -------SAT PAL

Our country which gave a weapon of non-voilence as conceived and propogated by Mahatma Gandhi has been able to dislodge the world’s the mightiest power. This very methodology received recognition at international level. A number of weapons of non-voilence are being utilized to achieve the objectives of Satyagrah being initiated by a large number of organizations and political and social bodies. Let us discuss various forms of non violent satyagrah which are dharna i.e. sit in, strike i.e. to stop work, demonstration, fast i.e. to stop taking food or anshan or bhookh hartal, indefinite fast and aamaran annshan i.e. fast until death. It is worthwhile to note that the intention behind undertaking the fast must be a noble one and not derogatory to any common cause. There has been incidents of adopting such means to get fulfilled the demands by the authorities. The non –violent agitations were being dealt with mercilessly during the British regime. Under the satyagrah, the agitators are not supposed to retaliate in any form. There has been a long history of the fast un till death. It may be recalled that Sri Prkasham in Andhra Pradesh, Sardar Darshan Singh Pheruman in Panjab and recently Sant Nigmanand in Utrakhand lost their lives during their sit in indefinite hunger strike undertaken by them on different causes.
The recent fasts undertaken by Baba Ramdev and Anna Hazare drew attention of one and all. The story of Baba Ramdev has been termed as an unfortunate though Hazare has been able to generate more and more heat out of his well planned gandhian agitation. The pe ople has started using Annagiri as a term after Gandhiri being used after the success of a film starring Sanjay Dutt. Since Anna shifted his field of operation from Maharashtra to New Delhi , all the fasts undertaken by him, including one day fast at Rajghat, have attracted masses and been able to ignite a spirit of nationalism across the country. Despite large crowds, well coined slogans, long marches, peaceful demonstrations and so called discipline shown by the participants, the mere objective of the movement is yet to be disseminated correctly and injected into the hearts and the minds of people who has been following the crowd like BHED CHAL. The showdown between Anna team and the government is bound to reach the peak though both the parties seems to keen on an early settlement as Anna team might be aware that it will be too difficult to hold the crowd in fact for a longer duration and the government will never want it to see it prolonged and might try to end this so called civilized protest as early as possible since Parliament session is on.

The very issue of Jan Lok Pal Bill and Corruption is not so easy to be resolved with a magic wand, it looks , that both the parties have already realized this hard fact and would like to reach some face saving agreement. Any how the youth who came out in support of Anna team has no objective other than being part of a movement which has been converted into a mela and a festival to rejoice together to become the centre of attraction. A sea of Gandhi caps and un dignified display of the Tri colour is not being liked by those intellectuals who take the constitution and freedom movement in high esteem . Any how Ann- shun , i.e. not taking food or Ann by Anna has become the top story in the news world.


सोना

सोना सो नहीं रहा भाग रहा है
सोना चमक रहा है, जाग रहा है
सोना ऊँची से ऊँची उडान पर है
सोना फख्र का सदा राग रहा है

रुबाई

लुत्फ़ के तय तो तरीके होंगे
कहने, हसने के सलीके होंगे
बंदिशों से घुटे, दबे घर में
खिडकियों के भी गिले होंगे

ख्वाब कितने हसीं होते हैं
कैसे पकडूं महीन होते हैं
ख्वाब सरमाया हो नहीं सकते
कहने कों बेहतरीन होते हैं

भूल जाना ही बेहतर

भूल जाना ही बेहतर है ----सत पाल

दिमाग पर कोई दबाव न रहे इसलिए भूल जाना मुफीद माना गया है . भूल जाना कभूल जाना ही बेहतर है ----सत पाल

दिमाग पर कोई दबाव न रहे इसलिए भूल जाना मुफीद माना गया है . भूल जाना कई बार बड़ी बड़ी मुसीबत से बचा लेता है और हल्के से सॉरी कहते हुए मुसीबतें टल जाती हैं . इस तेज़ी से दौड़ती भागती ज़िन्दगी में कई बार कई बड़ी बातें दिमाग से निकल जाती हैं , जैसे किसी आदमी को अपनी बीवी का बर्थ डे भूल जाना , किसी बड़े से बड़े लीडर को दस दस साल तक इन्कम टैक्स रिटर्न भरना भूल जाना , दफ्तर के काम में मसरूफ होने पर लंच करना भूल जाना या फिर किसी की शादी या पार्टी की तारीख भूल जाना . मगर कई बार भूल जाने का बहाना ले कर भी तो लोग बचने की कोशिश करते हैं . मगर कई बार कुछ लोग आगे आने वाली मुसीबत के डर से यह कहना शुरू कर देते हैं की उन्हें भूल जाने की बीमारी का असर हो रहा है. भूल जाना तब बीमारी होती है जब कोई आदमी यह भी भूल जाये कि वह कौन है, कहाँ है और उसे क्या करना है. अगर कोई आदमी या लीडर यूँ तो अपने सारे काम आम दिनों की तरह करता रहे और जब उससे किसी ऐसे मसले पर पूछताछ की जाये जिसमें उसका शिकंजे में फंसना दिख रहा हो और वह इस बीमारी का नाम लेकर बचना चाहे तो इसे शातिर तबीयत ही कहा जायेगा .

वैसे तो लीडरों को भूल जाने और इलेक्शन के वक़्त फिर पहचान लेने की आदत होती है मगर कम लीडर ही ऐसी बीमारी की दुहाई देते हैं. लीडरों को अपने वायदे भूल जाने, अपने इलाके में दौरा करना भूल जाने , अपने दोस्तों से दुआ सलाम करना भूल जाने , अपने वर्करों की पहचान भूल जाने का लगभग पूरा हक है क्योंकि उन्हें ये सब कुछ करना पांच साल में महज बीस दिन ज़रूरी लगता है. बाकी के चार साल , ग्यारह महीनें और दस दिन उनके केवल अपने दिन होते हैं. इन दिनों का इस्तेमाल वह सब कुछ भूल जाने और अपना फ्यूचर बनाने के लिए करते हैं. उनका मानना है कि अगर लीडरों का फ्यूचर सही होगा तभी तो वह मुल्क के फ्यूचर के बारे में सोच सकेंगे. जनता को भी तो सोचना चाहिए कि आखिर लीडरों को कितनी mehnat करनी होती है तो ऐसे में क्या उन्हें भूलने का भी हक नहीं है ?
ई बार बड़ी बड़ी मुसीबत से बचा लेता है और हल्के से सॉरी कहते हुए मुसीबतें टल जाती हैं . इस तेज़ी से दौड़ती भागती ज़िन्दगी में कई बार कई बड़ी बातें दिमाग से निकल जाती हैं , जैसे किसी आदमी को अपनी बीवी का बर्थ डे भूल जाना , किसी बड़े से बड़े लीडर को दस दस साल तक इन्कम टैक्स रिटर्न भरना भूल जाना , दफ्तर के काम में मसरूफ होने पर लंच करना भूल जाना या फिर किसी की शादी या पार्टी की तारीख भूल जाना . मगर कई बार भूल जाने का बहाना ले कर भी तो लोग बचने की कोशिश करते हैं . मगर कई बार कुछ लोग आगे आने वाली मुसीबत के डर से यह कहना शुरू कर देते हैं की उन्हें भूल जाने की बीमारी का असर हो रहा है. भूल जाना तब बीमारी होती है जब कोई आदमी यह भी भूल जाये कि वह कौन है, कहाँ है और उसे क्या करना है. अगर कोई आदमी या लीडर यूँ तो अपने सारे काम आम दिनों की तरह करता रहे और जब उससे किसी ऐसे मसले पर पूछताछ की जाये जिसमें उसका शिकंजे में फंसना दिख रहा हो और वह इस बीमारी का नाम लेकर बचना चाहे तो इसे शातिर तबीयत ही कहा जायेगा .

वैसे तो लीडरों को भूल जाने और इलेक्शन के वक़्त फिर पहचान लेने की आदत होती है मगर कम लीडर ही ऐसी बीमारी की दुहाई देते हैं. लीडरों को अपने वायदे भूल जाने, अपने इलाके में दौरा करना भूल जाने , अपने दोस्तों से दुआ सलाम करना भूल जाने , अपने वर्करों की पहचान भूल जाने का लगभग पूरा हक है क्योंकि उन्हें ये सब कुछ करना पांच साल में महज बीस दिन ज़रूरी लगता है. बाकी के चार साल , ग्यारह महीनें और दस दिन उनके केवल अपने दिन होते हैं. इन दिनों का इस्तेमाल वह सब कुछ भूल जाने और अपना फ्यूचर बनाने के लिए करते हैं. उनका मानना है कि अगर लीडरों का फ्यूचर सही होगा तभी तो वह मुल्क के फ्यूचर के बारे में सोच सकेंगे. जनता को भी तो सोचना चाहिए कि आखिर लीडरों को कितनी mehnat करनी होती है तो ऐसे में क्या उन्हें भूलने का भी हक नहीं है ?

ये सी डी सी डी क्या है



मेरा कसूर क्या है

मेरा कसूर क्या है ?

बर्तन परिवार के सबसे छोटे और खुद को उपेक्षित मान रहे सदस्य चम्मच ने बर्तन परिवार के मुखिया श्री कलश महाराज से पूछा, --महाराज आखिर मेरा कसूर क्या है जो सभ्य समाज मुझे हीन दृष्टि से देखता है, आखिर क्यों इन आदमियों ने एक दूसरे को चमचा कहकर मुझे बदनाम कर रखा है? महाराज, मैं इस चिंता में परेशान हूँ के आखिर इन्सान ने क्यों मेरा नाम बदनाम किया? मैंने उनका क्या बिगाड़ा था ? महाराज, मुझे इस तोहमत से बचाओ .

यह सुनकर कलश महाराज बोले, --पुत्र चम्मच , कोई बात नहीं. इंसानों में एक दूसरे पर बेवजह आरोप लगाने और एक दूसरे को बदनाम करने की आदत है. बर्तन बिरादरी उनकी फितरत नहीं बदल सकती.

चम्मच ने कहा, --मैं निरीह हूँ, बच्चों और बूढों को खाना मुंह तक ले जाने में मददगार हूँ. तरह तरह के पकवान, मिष्ठान खाने के लिए जरिया बनता हूँ . अब तो दक्षिण के लोग भी मेरा इस्तेमाल कर रहे हैं. उन्हें भी हर जगह हाथ से खाना अच्छा नहीं लगता. कहीं भी , किसी भी दावत में, कोई प्लेट मेरे बिना पूरी नहीं हो सकती. कांटें, छुरियां भी मेरे मुकाबले में पिछड़ रही हैं. आखिर इन्सान ने मुझे क्यों बदनाम क्या . मुझे इस हिकारत से बचा लो ,बर्तन शिरोमणि . मेरी रक्षा कीजिये, आपके बिना तो पूजा संभव नहीं है. कोई उपाय बताइए , महाराज.

कलश महाराज ने कहा , --कोई बात नहीं छुटकू , हमारी बिरादरी में केवल तुम ही बदनाम नहीं हो. बेपेंदी का लौटा और थाली के बैंगन के रूप में ये दोनों बदनाम हैं. और तो और, हमारे समुदाय के नाम पर तो कलह को भी जोड़ा गया है. परिवार में जब झगडे होते हैं तो कहते हैं---बर्तन बज रहे हैं. कोई बात नहीं बालक चम्मच , कोई बात नहीं. इंसानों को छिन्ताकाशी

करने और ताना मारने में आनंद आता है. बर्तन बिरादरी तो सेवा करती है, न हम इसके बदले कोई मेवा चाहते हैं और न ही किसी बदनामी से डरते हैं.

इतना सुन चम्मच ने कहा , -----महाराज , मानव समाज में जिसे भी चम्मच कहा जाता है, उसे खुदगर्ज़, अवसरवादी और तलुआ सहलाने वाला माना जाता है. क्या एक भी ऐसा गुण मुझमें है, बिलकुल नहीं, तो महाराज आप मेरे दर्द को या तो सुप्रीम कोर्ट के सामने रखें या किसी एम् पी से कह कर पार्लियामेंट में सवाल उठ्वाएं. अगर आपने कुछ नहीं किया तो मैं तो बदनामी में दब जाऊँगा, शर्म से मर जाऊँगा.

कलश महाराज, ---ठीक है बालक, मैं आज ही अपनी बिरादरी की वकील काठ की हांड़ी को बुलाकर परामर्श करता हूँ. मुझे यकीन है-- कम से कम काठ की हांड़ी पहली बार तो केस जीत ही जाएगी . यह तो मानता हूँ के वह बार बार नहीं चढ़ती .

चम्मच बोला---चम्मच बदनाम हुआ, आदमी तेरे लिए .

आँख

आँख

सांच को आंच नहीं कहते हैं.
दो और दो पांच नहीं कहते हैं.
जो नज़र देखते करे घायल
उसे तो आँख नहीं कहते हैं.

फाइल

फाइल

पुजारी अर्चना ही भूल गया
जौहरी परखना ही भूल गया
नुए युग के सभी हैं राही
फाइल सरकना ही भूल गया

क्षणिकाएं

क्षणिकाएं

रात में चौकीदार ने कहा
रात में चौकीदार ने जोर से कहा
जागते रहो
चोर जागा रहा
चौकीदार सो गया
चोर का काम आसान हो गया


एक पुलिस अफसर ने एक आदमी से पूछा
क्या तुम ने अपनी पत्नी जलाई है
आदमी ने उत्तर दिया
नहीं जनाब नहीं
मैंने तो उसकी अग्नि परीक्षा के लिए चिता बनायीं थी
उस पर बैठने के लिए
तो वह खुद चल कर आई थी


मैंने अपनी इकलौती पत्नी से कहा
मैंने अपनी अध्यापिका पत्नी से कहा
मैंने उससे रसोई में जा कर कहा
जी आज मुर्गा बनाओ
वह बोली
नहीं नहीं आज नहीं
कल स्कूल चले आओ

दागी सूची में होने के फायदे

दागी सूची में होने के फायदे

एक बड़े सरकारी बंगले में सुबह की चाय पीते और अख़बार पढ़ते एक आला अफसर राम भरोसे लाल की पत्नी बुद्धिमती देवी ने अपने पति से कहा----अजी सुनते हो, खबर है कि सरकार दागी अफसरों की सूची बना रही है. इसमें मेरे पतिदेव का नाम ज़रूर होना चाहिए .

यह सुनते ही पति को क्रोध आया और कहा----बुद्धिमती हो कर मूर्खतापूर्ण सुझाव दे रही हो. ऐसा कसे हो सकता है. क्या तुम बदनामी से नहीं डरती. सूची बनाना काम सरकार का है. मैं कसे नाम शामिल करवा सकता हूँ .

इतना सुनते ही बुद्धिमती ने काली का रूप धारण कर लिया और कहा----अजी तुम तो निरे धूर्त ही रहोगे. दागी सूची में नाम देखना चाहती हूँ मैं . इसके लिए जो भी करना पड़े करो. यह हिंदुस्तान है करोडपति लोग बी पी एल कार्ड बनवा लेते हैं दो दो चार चार बीवी रखने वाले एम् पी अपनी एक के अलावा बाकी बीवियां अंतर्ध्यान कर लेते हैं . तुम यह छोटा सा काम नहीं करवा सकते .

पति ने पूछा .....सूची तो सरकार बनाएगी. मैं क्या कर सकता हूँ और उसमें नाम आ जाने से नुकसान और बदनामी मिलेगी, फायदा क्या होगा . इस पर पत्नी ने उत्तर दिया ---अब मुझे विश्वास हो गया कि मेरी सास तुम्हें गोबर गणेश क्यों कहती थी. मेरे प्राणपति रिश्वत की इतनी रकम छिपा रखी है. सूची बनाने वाले अफसर को दो तीन पेटी और सोने की ईंट दिखाना और झट में अपना काम करा लेना. समझे.

पति ने सहमति में गर्दन हिलाई और गुमसुम हो कर चिंतन, मनन की मुद्रा में बैठ गया. कई मिनट की ख़ामोशी के बाद बोला ठीक है मानता हूँ, काम हो जायेगा, मगर फायदे क्या होंगे. पत्नी ने जवाब दिया-----लगता है अब मिटटी के माधो के दिमाग से मिटटी की परतें हट रहीं हैं. पतिदेव फायदे ही फायदे हैं. एक नहीं अनेक फायदे हैं. दागी बनते ही नामी गिरामी बन जाओगे. सारा देश जान जायेगा श्रीमान राम भरोसे लाल को. बस इसके बाद सफेदपोश बन जाना , नेताओं जैसी ड्रेस डालना. भ्रष्टाचार विरोधी धरने, प्रदर्शन में शामिल होना. जब तक नौकरी कमाऊ हो , करते रहना. उसके बाद नैतिक आधार पर इस्तीफा देकर समाजसेवी बन जाना . अख़बारों में ख़बरें छपवाना . बहुत नाम होगा. दागी होने के बाद हमारी जायदाद लोगों को पता चलेगी, अभी तक तो हमें भी नहीं मालूम कि कितनी है. मालदार साबित हो जाओगे तो बच्चों को बड़े बड़े सरमायेदारों के घर से रिश्ते मिलेंगे. बस क्या है दो चार धरने, प्रदर्शनों में गांधीगिरी करने वाले नेताओं के साथ फोटो छपेंगी तो पोलिटिक्स के दरवाजे खुल जायेंगे . टिकट लेकर चुनाव जीते तो सोने की ईंट दिखाकर मंत्री बनोगे. फिर क्या पोलिटिक्स में आने का हमारे चुन्नू और चिंटी का रास्ता भी खुल जायेगा .

पति सचमुच ख्याली पुलाव के स्वाद में खो गया और बोला ----मैडम सफ़ेद कपडे से क्या सब छिप जायेगा और अगर दाव उल्टा पड़ा तो जेल होगी

पत्नी-----मेरे पतिदेव सफ़ेद में सब ढक जाता है. दूध का धुला हो जाता है आदमी. दूध में कितना यूरिया होता है, क्या दिखता है, और जेल की तो बात ही मत करो. हजारों दागियो में से कोई एक फसता है और जेल जाता है, कोई चिंता मत करो. याद रखो मेरा भाई चुस्ती लाल बड़ा वकील है और तुम्हारा नाम है राम भरोसे .

ये काला,काला क्या है?

ये काला,काला क्या है ?

मुल्क में हर तरफ काले धन की चर्चा है यानि ब्लैक मनी पर काबू पाने के लिए बाहरी मुल्कों के बैंकों में जमा रकम देश वापस लाने और बैंकों में जिन लोगों के नाम खाते हैं उनके नाम जग जाहिर किये जाने की मांग की जा रही है. इस मुद्दे को और तो और एक बाबा सन्यासी और एक पार्टी ने भी गर्म कर रखा है. इतना ही नहीं एक वकील ने भी सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है और अब तो देश की केबिनेट में भी इस पर चर्चा की गई है . ब्लैक मनी पर इतने कोहराम के बाद भी दिल्ली के मौजी राम को कोई चिंता नहीं है. वह तो हर आदमी से यह जानना चाहता है कि ये काला , काला क्या है? काला धन क्या होता है? उसका कहना है कि अब तक न तो किसी सरकार ने काले सिक्के बनाये हैं और न ही कोई काले नोट ?

मौजी राम का यह भी दावा है कि उसके पास बेइंतिहा रकम है और यह सारी की सारी काली है. उसका यह भी कहना है कि इस रकम को कोई भी पकड़ नहीं सकता, कोई भी खोज नहीं सकता, कोई निकाल नहीं सकता. मौजी राम यह भी कहता है कि उसने अपनी दौलत को नज़र से बचाने के लिए उस पर कालिख लगा दी है . इस तरह मौजी राम की काली रकम है. मौजी राम का यह भी दावा है कि न तो कोई इनकम टैक्स, न कोई सी बी आई और न ही कोई सरकार इस रकम का पता लगा सकती है .

मौजी राम को इस बात का भी संतोष है कि उस पर सुप्रीम कोर्ट के आर्डर भी लागू नहीं होंगे क्योंकि बड़ी अदालत तो बाहरी मुल्कों में जमा ब्लैक मनी पर गौर कर रही है जबकि उसकी कालिख लगी मनी तो दिल्ली में गढ़ी है, कहीं ज़मीं के नीचे , कहीं कुँए से तीस कदम दूर, कहीं यमुना के पिछवाड़े, कहीं शमशान के आखिरी दरवाज़े से पांच गज हट कर और कहीं माशूक नंबर इक्कीस के चौथे कमरे की टूटी अलमारी के बगल में.

मौजी राम यह भी कहता है कि यह रकम कमाई की है लूट की नहीं. जब उसे बताया गया कि जिस रकम का ज़िक्र खाते में नहीं होता वही काली रकम होती है तो मौजी राम ने जवाब दिया कि उसे खाते या अकाउंट का कुछ पता नहीं. उसने कहा कि यह सब बेकार की बातें हैं. मौजी राम ने कहा वह तो खानदानी आदमी है और उसके खानदान में सब हिसाब किताब ज़ुबानी चलता रहा है , न तो उसके दादा, परदादा और न ही पिता ने कोई खाता रखा. पूरा का पूरा खानदान लाजवाब है जिसकी यादाश्त भी बेमिसाल रही है. हमें खातों से कुछ लेना देना नहीं है.

अपनी रकम को नज़र से बचाने के लिए काला टीका ज़रूर लगाया है मगर हमारी ब्लैक मनी नहीं है. हमारा कोई क्या कर लेगा, हमें ही इस रकम को ढूँढने में पसीने आ जाते है तो सरकार क्या इसे ढूंढ सकेगी ?

आखिर में मौजी राम ने एक पते की बात कही कि जो बिन कुछ किये रकम लेते हैं और खुले आम खाते हैं या शर्म आने पर छिप छिप कर खाते हैं और सीधे उलटे खाते खुलवाते हैं , उनके पास ही होगी ब्लैक मनी. मौजी राम जैसे लोग तो कमाते हैं और मौज उड़ाते हैं. हमारे पास न तो कुछ काला है और न ही कुछ दाल में काला .