भूल जाना ही बेहतर

भूल जाना ही बेहतर है ----सत पाल

दिमाग पर कोई दबाव न रहे इसलिए भूल जाना मुफीद माना गया है . भूल जाना कभूल जाना ही बेहतर है ----सत पाल

दिमाग पर कोई दबाव न रहे इसलिए भूल जाना मुफीद माना गया है . भूल जाना कई बार बड़ी बड़ी मुसीबत से बचा लेता है और हल्के से सॉरी कहते हुए मुसीबतें टल जाती हैं . इस तेज़ी से दौड़ती भागती ज़िन्दगी में कई बार कई बड़ी बातें दिमाग से निकल जाती हैं , जैसे किसी आदमी को अपनी बीवी का बर्थ डे भूल जाना , किसी बड़े से बड़े लीडर को दस दस साल तक इन्कम टैक्स रिटर्न भरना भूल जाना , दफ्तर के काम में मसरूफ होने पर लंच करना भूल जाना या फिर किसी की शादी या पार्टी की तारीख भूल जाना . मगर कई बार भूल जाने का बहाना ले कर भी तो लोग बचने की कोशिश करते हैं . मगर कई बार कुछ लोग आगे आने वाली मुसीबत के डर से यह कहना शुरू कर देते हैं की उन्हें भूल जाने की बीमारी का असर हो रहा है. भूल जाना तब बीमारी होती है जब कोई आदमी यह भी भूल जाये कि वह कौन है, कहाँ है और उसे क्या करना है. अगर कोई आदमी या लीडर यूँ तो अपने सारे काम आम दिनों की तरह करता रहे और जब उससे किसी ऐसे मसले पर पूछताछ की जाये जिसमें उसका शिकंजे में फंसना दिख रहा हो और वह इस बीमारी का नाम लेकर बचना चाहे तो इसे शातिर तबीयत ही कहा जायेगा .

वैसे तो लीडरों को भूल जाने और इलेक्शन के वक़्त फिर पहचान लेने की आदत होती है मगर कम लीडर ही ऐसी बीमारी की दुहाई देते हैं. लीडरों को अपने वायदे भूल जाने, अपने इलाके में दौरा करना भूल जाने , अपने दोस्तों से दुआ सलाम करना भूल जाने , अपने वर्करों की पहचान भूल जाने का लगभग पूरा हक है क्योंकि उन्हें ये सब कुछ करना पांच साल में महज बीस दिन ज़रूरी लगता है. बाकी के चार साल , ग्यारह महीनें और दस दिन उनके केवल अपने दिन होते हैं. इन दिनों का इस्तेमाल वह सब कुछ भूल जाने और अपना फ्यूचर बनाने के लिए करते हैं. उनका मानना है कि अगर लीडरों का फ्यूचर सही होगा तभी तो वह मुल्क के फ्यूचर के बारे में सोच सकेंगे. जनता को भी तो सोचना चाहिए कि आखिर लीडरों को कितनी mehnat करनी होती है तो ऐसे में क्या उन्हें भूलने का भी हक नहीं है ?
ई बार बड़ी बड़ी मुसीबत से बचा लेता है और हल्के से सॉरी कहते हुए मुसीबतें टल जाती हैं . इस तेज़ी से दौड़ती भागती ज़िन्दगी में कई बार कई बड़ी बातें दिमाग से निकल जाती हैं , जैसे किसी आदमी को अपनी बीवी का बर्थ डे भूल जाना , किसी बड़े से बड़े लीडर को दस दस साल तक इन्कम टैक्स रिटर्न भरना भूल जाना , दफ्तर के काम में मसरूफ होने पर लंच करना भूल जाना या फिर किसी की शादी या पार्टी की तारीख भूल जाना . मगर कई बार भूल जाने का बहाना ले कर भी तो लोग बचने की कोशिश करते हैं . मगर कई बार कुछ लोग आगे आने वाली मुसीबत के डर से यह कहना शुरू कर देते हैं की उन्हें भूल जाने की बीमारी का असर हो रहा है. भूल जाना तब बीमारी होती है जब कोई आदमी यह भी भूल जाये कि वह कौन है, कहाँ है और उसे क्या करना है. अगर कोई आदमी या लीडर यूँ तो अपने सारे काम आम दिनों की तरह करता रहे और जब उससे किसी ऐसे मसले पर पूछताछ की जाये जिसमें उसका शिकंजे में फंसना दिख रहा हो और वह इस बीमारी का नाम लेकर बचना चाहे तो इसे शातिर तबीयत ही कहा जायेगा .

वैसे तो लीडरों को भूल जाने और इलेक्शन के वक़्त फिर पहचान लेने की आदत होती है मगर कम लीडर ही ऐसी बीमारी की दुहाई देते हैं. लीडरों को अपने वायदे भूल जाने, अपने इलाके में दौरा करना भूल जाने , अपने दोस्तों से दुआ सलाम करना भूल जाने , अपने वर्करों की पहचान भूल जाने का लगभग पूरा हक है क्योंकि उन्हें ये सब कुछ करना पांच साल में महज बीस दिन ज़रूरी लगता है. बाकी के चार साल , ग्यारह महीनें और दस दिन उनके केवल अपने दिन होते हैं. इन दिनों का इस्तेमाल वह सब कुछ भूल जाने और अपना फ्यूचर बनाने के लिए करते हैं. उनका मानना है कि अगर लीडरों का फ्यूचर सही होगा तभी तो वह मुल्क के फ्यूचर के बारे में सोच सकेंगे. जनता को भी तो सोचना चाहिए कि आखिर लीडरों को कितनी mehnat करनी होती है तो ऐसे में क्या उन्हें भूलने का भी हक नहीं है ?

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