पेड़ है कि बोलता नहीं

पेड़ है कि बोलता नहीं

पेड़ है सचमुच बोल नहीं सकता, चुपचाप शहरीकरण की मार सहता है,कटता है,छंटता है,घटता है क्योंकि उसकी जुबान नहीं है. तभी तो हाई कोर्ट को पेड़ की जुबान बनना पड़ता है,उसके दुःख दर्द को कहना पड़ता है. पेड़ बेजुबान है मगर बेदर्द नहीं बल्कि वह तो मेहरबान है, न किसी से कुछ मांगता है और न ही कोई उम्मीद करता है. अपना खाना खुद बनाता है और इन्सान को ताज़ा हवा,फल और फूल भी देता है. इसकी हरियाली और दरयादिली दोनों लाजवाब हैं. हाई कोर्ट ने कहा कि पेड़ों के आसपास लगाया गया कंक्रीट हटाया जाये क्योंकि पेड़ों को फैलने ,बड़ा होने और अंगड़ाई लेने में दिक्कतें आती हैं. हाई कोर्ट ने इस मामले में एम् सी डी और एन डी एम् सी से एक्शन लेने को कहा है. यह तो सच है कि पेड़ों को सांस लेने में भी तकलीफ होती है. हमें उन पेड़ों की सांस पर रोक लगाने का क्या हक है जो हमें मुफ्त यानि बिलकुल मुफ्त बेइंतहा आक्सीजन देते हैं. हमें उसकी ज़िन्दगी लेने का क्या हक है जी हमें ज़िन्दगी , लम्बी उम्र का वरदान देते हैं. मगर इस कंक्रीट के जंगलवाले शहर से कंक्रीट हटाना कितना आसान होगा यह कहा नहीं जा सकता.

दिल्ली का जैसे जैसे विस्तार हुआ वैसे वैसे पेड़ों का संहार हुआ, पेड़ों पर वार हुआ, प्रहार हुआ और पेड़ सिमट कर रह गए. डवलपमेंट के लिए पेड़ों पर कुल्हाड़ियाँ पड़ती गई और पेड़ों की दुनिया सिमटती गई. कहते हैं जंगल का कानून ,यानि खून के बदले खून, जंगल से ज्यादा सभ्यता में चलता है. आदमी का खून करने पर मिलती मौत की सजा, पेड़ का क़त्ल करने पर बच निकलता है . इसके मद्देनज़र दिल्ली सरकार ने डवलपमेंट के लिए काटे जाने वाले एक पेड़ के बदले दस पेड़ लगाये जाने का कानून बनाया है . इसके अलावा अब पेड़ काटे जाने की मंज़ूरी की अर्जी देने पर जमा किये जाने वाली रकम भी २८ गुना कर दी गयी है . अब तो ऐसी हालत हो गई है कि पेड़ काटा तो मुसीबत आई . पेड़ काटने के बाद हुए नुकसान को पूरा करने के लिए पेड़ लगाने की भी ज़िम्मेदारी तय की गई है. यह नए नियम तो इंसानियत और कुदरत के हक में है. इन नियमों को सख्ती से लागू करने में ही सब की भलाई है. जैसे हमें जीने का हक है वैसा ही हक पेड़ों को भी मिले. बेजुबान पेड़ों की कौन जुबान बनना चाहेगा. ज़रुरत इस बात की है कि हम इन पेड़ों की जुबान और रखवाले भी बनें.

1 टिप्पणियाँ:

kafi aacha likha hai ....

 

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