भाषावादियों का हुडदंग

हमारा देश स्वतंत्र है , यहाँ हर तरह की आज़ादी है . यहाँ कोई भी कुछ भी कर सकता है जसे शोशेबाजी
,नाटकबाजी , बिना मकसद के निशानेबाजी और राजनितिक तीरंदाजी तभी तो आज भाषावादी सचमुच तमाशावादी बन गए हैं. भाषाई कट्टरवाद को आधार बनाकर आगे बढ़ने का सपना देखने वाले भाषा को तमाशा बनाजकर न जाने क्या हासिल करना चाहते हैं . भाषा संपर्क का माध्यम होती है, भाषा एक दुसरे से बात करने में मददगार होती है न के संपर्क काटने की तलवार होती है . भाषा एक समृध भंडार होती है, भाषा दुसरे मायने में आशा होती है जो निराशा के अंधकार को चीर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाने का काम करती है . भाषा जी हाँ भाषा को न ज़बरन फैलाया जा सकता है न इसका प्रचार किया जा सकता है और न ही प्रसार . भाषा कोई भी भाषा जब किसी व्यक्ति के मुखारबिंद से बोली जाती है तो उसका असर फूलों जैसा होता है , भाषा अगर क्रूर हो जाये तो उसे गाली और बदहाली का सूचक कहा जाता है. या यूँ कहिये के भाषा किसी भी व्यक्ति के मुख का आभूषण बनती है मगर यह काम ज़बरन, भय या दबाव से नहीं कराया जा सकता . भाषा को तमाशा बनाना उचित नहीं है क्योंकि भाषा की परिभाषा में बाँटना, काटना शामिल नहीं किया जा सकता .

आज एक प्रदेश में सभी निर्वाचित विधायकों से एक विशेष भाषा में शपथ लेने पर जोर दिया जा रहा है . इसलिए विधानसभा में सदस्यों के शपथ ग्रहण समारोह में एक नई पार्टी के विधायकों ने हंगामा किया , उनकी पसंद से अलग भाषा में शपथ लेने पर हुडदंग मचाया और अपनी जिद्द पर अडे रहे . सचमुच यह एक ऐसी जिद्द है जिसका कोई ओचित्य नहीं बनता . आप अपनी भाषा के प्रचार प्रसार के नाम पर दूसरी भाषाओँ को मौन नहीं कर सकते . संविधान में अंग्रेजी और हिंदी के आलावा भारत की कई भाषाओँ को एक अनुसूची में शामिल किया गया है अर्थात ये सभी भाषाएँ सरकार के काम काज और सदन की कार्यवाई के लिए मान्य हैं. आप अपनी भाषा के प्रति प्रेम प्रर्दशित करते हुए अन्य भाषाओँ के प्रतिनिधियों को मूक रूप से बिना बोले शपथ नहीं दिलवा सकते . जितनी आप की भाषा समृद्ध है उतनी ही अन्य भाषाएँ भी हैं . इस तरह का तकरार , व्यव्हार उस भाषाई कट्टरवाद की याद दिलाता है जब ६० के दशक में कथित हिंदी प्रेमी अंग्रेजी के साईन बोर्ड पर कालिख पोत दिया करते थे और एक बार तो अंग्रेजी बोलने वाले का मुंह भी काला कर दिया गया था . ऐसी गतिविधियों से न तो अंग्रेजी के इस्तेमाल में कमी आयी और न ही हिंदी को कोई फायदा हुआ. दरअसल एक भाषा के साथ मिलन से ही तो लोग एक से ज्यादा भाषाओँ का ज्ञान हासिल करते हैं . अगर आप अपनी भाषा के दायरे में ही सिमट कर रह जायेंगे तो ज्ञान के संसार और ज्ञान के भंडार से कट जायेंगे क्योंकि केवल अनुवाद के सहारे मौलिकता का आभास कर ज्ञान का विस्तार संभव नहीं होता.

भाषा प्रेम का प्रसार करे न के नफ़रत का तभी उसकी लोकप्रियता बढ़ सकती है . एक फ़िल्मी गीत के बोल हैं ---मेरे घर आना ज़िन्दगी, मेरे घर के आगे मोहब्बत लिखा है , . अगर आप की भाषा के घर के आगे मोहब्बत की जगह नफरत का साइन बोर्ड होगा तो वहां ज़िन्दगी नहीं आएगी अपितु निराशा, हताशा और मुर्दानगी का बोलबाला होगा .

1 टिप्पणियाँ:

sir bilkul such kaha aapne..

 

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