दास्तान-ए-झाड़ू – सत पाल

देश की राजधानी दिल्ली में अचानक 2013 के विधान सभा चुनाव से पहले झाड़ू का अवतरण हुआ। एक नई पार्टी ने पांचवी विधान सभा का चुनाव सभी सीटों पर लड़ने के लिये मुख्य चुनाव अधिकारी से एक राज्य स्तर का चुनाव निशान आबंटित करने का अनुरोध किया और यह अनुरोध आसानी से मान लिया गया। इस फैसले पर सभी को हैरानी तो हुयी और कहा जाने लगा कि बिना किसी अस्तित्व के पार्टी को निशान दिया जा रहा है। इस के अलावा यह भी कहा गया कि नव गठित आम आदमी पार्टी को शायद ही तीन चार सीटों पर जीत मिलेगी और चौबे जी गये छब्बे बनने गये और दुबे बन कर लौटे वाली हालत बनेगी। और निशान जब झाड़ू मिला तो इसे ले कर भी जग हंसाई होने लगी। नयी पार्टी नये निशान ने जिस तरह 2013 में झाड़ू हिला हिला कर , झाड़ू दिखा दिखा कर प्रचार किया तो लोगों की आंखें खुलने लगीं । इस चुनाव में नयी पार्टी ने दिल्ली में शुरू से जमीं दोनों पार्टियों को नाकों चने चबवा दिये और दिल्ली में चुनावी मुकाबले में तीसरी ताकत बन गयी। तीसरी पार्टी साकार करने का जो काम खुराना नहीं कर सके वह काम केजरीवाल ने कर दिखाया। अबके झाड़ू ही चलेगी का ऐलान, यूं लगा रणभेरी बनने लगा।  पहली बार दिल्ली राज्य के चुनाव में त्रिशंकु विधान सभा का नजारा दिखायी दिया। नयी पार्टी को 28 सीटें और  लगातार 15 साल राज करने वाली सबसे पुरानी कांग्रेस को केवल आठ सीटें तथा बहुमत का सपना देख रही भाजपा की तो वह हालत कर दी जिसे पंजाबी में कहते हैं—नाती धोती रह गयी । भाजपा न तो जोड़ तोड़ कर सरकार बनाने की हिम्मत कर सकी और न ही सब से बड़ी पार्टी बनने पर गर्व कर सकी और 32 सीटें तथा दो सहयोगी सदस्य होने के बावजूद अपने जर्जर शरीर में प्राणवायु नहीं डाल सकी। दिल्ली के लिये ये झाड़ू की मार थी।  2015 के विधान सभा चुनाव में तो झाड़ू का कहर चला और कोंग्रेस के सारे के सारे तंबू उखड़ गये और भाजपा को आंसू पोंछने के लिये इतनी सीटें मिलीं जितनी परिवार नियोजन के दिनों में कहा जाता था-  दो या तीन बस। दिल्ली में जब झाड़ू चला तो तबदीली आयी और जब सफाई कर्मचारियों ने अपने आंदोलन में झाड़ू से कुछ दिन का तलाक घोषित किया तो दिल्ली में सड़ांध का दायरा बढ़ने लगा और इसको लेकर राजनीति गर्म हो गयी। झाड़ू नहीं चलने से दिल्ली सरकार को भी दिन में तारे दिखायी देने लगे और लगा कि कहीं विफलता का चेहरा न देखने पड़े।  जब झाड़ू का इस्तेमाल बंद हो गया तो दिल्ली कूड़ा घर बन गयी और क्या सरकार, क्या अदालत सभी को चिंता होने लगी और इसके बाद हड़ताल या तो खत्म हुयी या फिर इसके तेवर ढीले होने लगे। ऐसे में एक बार फिर झाड़ू चलाने की जरूरत है ताकि कूड़े के पर्वत हटाये जो सकें। इस काम को जल्दी से जल्दी अंजाम देने के लिये यह जरूरी है कि हर आदमी, भले ही वह किसी पार्टी का हो या किसी भी पार्टी का न हो, सड़ रही दिल्ली से कूड़ा कर्कट हटाने के लिये अपने हाथों में कस कर झाड़ू थामे और दिल्ली को साफ सुथरा बनाये। यह है झाड़ू की एक साल की अमर कहानी।

    

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